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________________ ६. रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ प्रस्तावना निकामें कहीं कहीं नयविभागका अर्थ स्पष्ट ( खुलासा ) किया गया है इससे भ्रम न रहे ॥ तथा तीसरा प्रयोजन यह है कि कालदोषसे बुद्धिकी मंदतासे प्राकृतसंस्कृत के पढनेवाले तो विरले हैं उनमें भी स्वपरमतका विभाग ( भेद ) समझ यथार्थ तत्त्वके अर्थको समझने वाले थोड़े हैं । और जैनग्रंथोंकी गुरु आम्नाय कम रह गई है स्याद्वाद के मर्मकी बात कहनेवाले गुरुओं की व्युच्छित्ति ( हीनता ) दीखती है । इस कारण शुद्ध - नयका मर्म स्याद्वादविद्याको समझकर समझे तभी यथार्थ तत्त्वज्ञान हो सकता है । अत एव इस ग्रंथकी वचनिका विशेष अर्थरूप हो तो सभी वार्चें पढें तथा पहली वचनिकाके सामान्य अर्थमें कुछ भ्रम हुआ हो वह मिट जाय इस शास्त्रका यथार्थ ज्ञान हो जाय तो अर्थ में विपर्यय नहीं हो सकेगा । ऐसें तीन प्रयोजन मनमें धारण कर वचनिकाका प्रारंभ किया गया है । एक प्रयोजन यह भी है कि जैनमतमें मोक्षमार्गके वर्णनमें पहले सम्यग्दर्शन मुख्य (प्रधान) कहा गया है सो व्यवहार नयकर तो सम्यग्दर्शन भेदरूप अन्यग्रंथों में अनेक प्रकार कहा है वह प्रसिद्ध ही है । परंतु इस ग्रंथ में शुद्धनयका विषय जो शुद्धआत्मा उसीके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन एक ही प्रकार नियमसे कहा गया है । सो लोकमें यह कथन बहुधा प्रसिद्ध नहीं है इसलिये व्यवहारको लोक समझते हैं । पहले लोकों के अशुभ व्यवहार था उसको निषेधकर व्यवहारनय शुभमें प्रवर्तती है सो लोक अशुभकी पक्षको छोड़ शुभमें प्रवर्तते हैं । कदाचित् शुभका ही पक्ष पकड़ इसीका एकांत किया जाय तो पहले अशुभकी पक्षका एकांत था अब शुभका एकांत हुआ, इसीको मोक्षमार्ग माना तब मिथ्यात्व ही दृढ हुआ । इसलिये शुभकी पक्ष छुड़ानेको शुद्धनयके आलंबनका उपदेश है । इसीको निश्चयनय कह सत्यार्थ कहा है, अशुद्धनयको व्यवहार कह असत्यार्थ कहा है । क्योंकि व्यवहार शुभाशुभरूप है बंधका कारण है, इसमें तो प्राणी अनादिकाल से ही प्रवर्त रहा है शुद्धनयरूप कभी हुआ नहीं, इसलिये इसका उपदेश सुन इसमें लीन होके व्यवहारका आलंबन छोड़े तब बंधका अभाव करसकता है । तथा स्वरूपकी प्राप्ति होनेके बाद शुद्ध अशुद्ध दोनोंही नयोंका आलंबन नहीं रहता । नयका आलंबन तो साधक अवस्थामें ही प्रयोजनवान है । सो इस ग्रंथ में ऐसा वर्णन है । इस1. लिये इसको खुलासाकर स्पष्ट अर्थ वचनिकारूप लिखा जाय तो सर्वथा एकांत की पक्ष मिट जाय, स्याद्वादका मर्म यथार्थ समझे, यथार्थ श्रद्धान होवे तब मिथ्यात्वका नाश हो, यह भी वचनिका बनानेका प्रयोजन है । तथा ऐसा भी जानना कि स्वरूपकी प्राप्ति दो प्रकारसे होती है, प्रथम तो यथार्थ ज्ञान होकर श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन होना सो यह तो अविरतसम्यग्दृष्टि चतुर्थगुणस्थानवाले के भी होता है वहां बाह्य व्यवहार तो 'अविरतरूप ही है वहां व्यवहारका आलंबन है ही, और अंतरंग सब नयों के पक्षपातरहित अनेकांत तत्त्वार्थकी श्रद्धा होती है । जब संयम धार प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानवर्ती मुनि होय
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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