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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । लक्षणया सत्तयानुस्यूतश्चैतन्यस्वरूपत्वान्नित्योदितविशददृशिज्ञप्तिज्योतिरनंतधर्माधिरूढैकधर्मित्वादुद्योतमानद्रव्यत्वः क्रमाक्रमप्रवृत्तिविचित्रभावस्वभावत्वादुत्संगितगुणपर्यायः स्वपराकारावभासनसमर्थत्वादुपात्तवैश्वरूप्यैकरूपः प्रतिविशिष्टावगाहगतिस्थितिवर्त्तनानिमित्तरूप ८ त्वाभावादसाधारणचिद्रूपतास्वभावसद्भावाच्चाकाशधर्माधर्मकालपुद्गलेभ्यो भिन्नोऽत्यंतमनंतद्रव्यसंकरेपि स्वरूपादप्रच्यवनात् टंकोत्कीर्णचित्स्वभावो जीवो नाम पदार्थः स समयः, समयत एकत्वेन युगपज्जानाति गच्छति चेति निरुक्तेः । अयं खलु यदा सकलस्वभावभासनसमर्थविद्यासमुत्पादकविवेकज्योतिरुद्गमनात्समस्तपरद्रव्यात्प्रच्युत्य दृशिज्ञप्तिस्वभावनियतवृत्तिरूपात्मतत्त्वैकत्वगतत्वेन वर्त्तते तदा दर्शनज्ञानचारित्रस्थितत्वात्स्वमेकत्वेन युगपज्जानन् गच्छंश्च स्वसमय इति । यदा त्वनाद्यविद्याकंदलीमूलकंदायमान मोहानुवृत्तितया दशिसूत्रमिदं निरूपयति ; — ' जीवो चरित्त' इत्यादि । जीवो शुद्धनिश्वयेन शुद्धबुद्धैकस्वभावनिश्चयप्राणेन तथैवाशुद्धनिश्चयेन क्षायोपशमिका शुद्धभावप्राणैरसद्भूतव्यवहारेण यथासंभवद्रव्यप्राणैश्च जीवति जीविष्यति जीवितपूर्वो वा जीवः । चरित्तदंसणणाणहिद तं हि ससमयं जाण स च जीवश्चारित्रदर्शनज्ञानस्थितो यदा भवति तदा काले तमेव जीवं हि स्फुटं स्वसमयं जानीहि । तथाहि - विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजपरमात्मनि यदुचिरूपं सम्यग्दर्शनं तत्रैव रागादिरहितस्वसंवेदनं ज्ञानं तथैव निश्चलानुभूतिरूपं वीतरागचारित्रमित्युक्तलक्षणेन निश्चयरत्नत्रयेण परिणतजीवपदार्थं हे शिष्य स्वसमयं जानीहि । पुग्गलकम्मुवदेसहिदं च तं जाण परसमयं पुद्गलकर्मोपदेशस्थितं च तमेव जानीहि परसमयं । तद्यथा - पुद्गलकर्मोसमयका स्वरूप कहते हैं; हे भव्य जो [ जीवः ] जीव [ चरित्रदर्शनज्ञानस्थितः ] दर्शन ज्ञान चारित्र में स्थित हो रहा है [ तं ] उसे [हि ] निश्चयकर [ स्वसमयं ] स्वसमय [ जानीहि ] जान । [च] और जो जीव [ पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितं ] पुनलकर्मके प्रदेशोंमें तिष्ठा हुआ है [ तं ] उसे [परसमय ] परसमय [जानीहि ] जान । टीका- जो यह जीव नामा पदार्थ है वो ही समय है। क्योंकि समयशब्दका ऐसा अर्थ है'सम्' तो उपसर्ग है और 'अय गतौ' धातु है उसका गमन अर्थ भी है तथा ज्ञान अर्थ भी है, उपसर्गका अर्थ एकपना है इसलिये एककालमें ही जानना और परिणमन करना - ये दो क्रियायें जिसमें हों वह समय है । यह जीव नामा पदार्थ एक काल में ही परिणमता भी है और जानता भी है इसलिये यही समय है । इसतरह दो क्रियायें एक कालमें जानना । वह समय नामा जीव कैसा है ? । नित्य ही परिणमनस्वभाव में रहनेसे उत्पाव्ययध्रौव्यकी एकतारूप अनुभूति लक्षणवाली सत्ताकर सहित है । इस विशेषणसे जीवकी सत्ता नहीं माननेवाले नास्तिक वादियों का मत खंडित हुआ । तथा पुरुषको (जीवको) अपरिणामी माननेवाले सांख्यमतियों का व्यवच्छेद परिणमन स्वभाव कहने से हुआ । नैयायिक वैशेषिकमती सत्ताको नित्य ही मानते हैं तथा बौद्धमती सत्ताको क्षणिक ही
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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