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________________ समयसारः । तत्र तावत्समय एवाभिधीयते; जीवो चरित्तदंसणणाणहिउ तं हि ससमयं जाण । पुग्गलकम्मपदेसहियं च तं जाण परसमयं ॥२॥ जीवः चरित्रदर्शनज्ञानस्थितः तं हि खसमयं जानीहि । पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितं च तं जानीहि परसमयम् ॥ २॥ योयं नित्यमेव परिणामात्मनि स्वभाव अवतिष्ठमानत्वात् उत्पादव्ययध्रौव्यैक्यानुभूति॥ १ ॥ अथ गाथापूर्वार्द्धन स्वसमयमपरार्धेन परसमयं च कथयामीत्यभिप्रायं मनसि संप्रधार्य ध्यात्वके नाश होनेके लिये मैं परिभाषण ( ब्याख्यान ) करूंगा ॥ भावार्थ यहांपर गाथासूत्र में आचार्यने “वक्ष्यामि" क्रिया कही है, उसका अर्थ टीकाकारने "वच परिभाषणे" धातुसे परिभाषण लेकर किया है । उसका आशय ऐसा सूचित होता है कि जो चौदहपूर्व में ज्ञानप्रवाद नामा छठे पूर्व के बारह 'वस्तु' अधिकार हैं, उनमें भी एक एकके वीस २ प्राभृत अधिकार हैं, उनमें दशवें वस्तुमें समय नामा जो प्राभृत है उसका परिभाषण आचार्य करते हैं। सूत्रोंकी दश जातियां कहीं गई हैं उनमें एक परिभाषा जाति भी है । जो अधिकारके यथास्थानमें सूचन करे वह परिभाषा कही जाती है । इस समय नामा प्राभृतके मूलसूत्रों (शब्दों) का ज्ञान तो पहले बड़े आचार्योंको था और उसके अर्थका ज्ञान आचायोंकी परिपाटीके अनुसार श्रीकुंदकुंदाचार्यको था। इसलिये उन्होंने ये समयप्रा. भृतके परिभाषासूत्र बांधे हैं। वे उस प्राभृतके अर्थको ही सूचित करते हैं। ऐसा जानना। जो मंगलके लिये सिद्धोंको नमस्कार किया था और उनका 'सर्व' ऐसा विशेषण दिया, इससे वे सिद्ध अनंत हैं ऐसा अभिप्राय दिखलाया और 'शुद्ध आत्मा एक ही है' ऐसा कहनेवाले अन्यमतियोंका व्यवच्छेद किया। संसारीके शुद्ध आत्मा साध्य है वह शुद्धात्मा साक्षात् सिद्ध हैं उनको नमस्कार करना उचित ही है । किसी इष्ट देवका नाम नहीं कहा उसकी बाबत जैसा टीकाकारके मंगलपर कहा गया है वैसा यहां भी जानना । श्रुतकेवली शब्दके अर्थमें श्रुत तो अनादिनिधन प्रवाहरूप आगम कहा और केवली शब्दसे सर्वज्ञ तथा परमागमके जाननेवाले श्रुतकेवली केवली कहे, उनसे समयप्राभृतकी उत्पत्ति कही है । इससे ग्रंथकी प्रमाणता दिखलाई और अपनी बुद्धिसे कल्पित कहनेका निषेध किया ।अन्यवादी छद्मस्थ (अल्पज्ञानी) अपनी बुद्धिसे पदार्थका स्वरूप किसी प्रकारसे कहकर विवाद करते हैं उनका असत्यार्थपना बतलाया । इस ग्रंथके अभिधेय संबंध प्रयोजन तो प्रगट ही हैं । अभिधेय तो शुद्ध आत्माका स्वरूप है, उसके वाचक इस ग्रंथमें शब्द हैं उनका वाच्यवाचकरूप संबंध है और शुद्धात्माके स्वरूपकी प्राप्ति होना प्रयोजन है। इसतरह प्रथम गाथासूत्रका तात्पर्यार्थ जानना ॥१॥ आगे प्रथमगाथामें समयके प्राभृत कहनेकी प्रतिज्ञा की। वहां यह आकांक्षा हुई कि समय क्या है इसलिये प्रथम ही
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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