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________________ समयसारः। ज्ञप्तिस्वभावनियतवृत्तिरूपादात्मतत्त्वात्प्रच्युत्य परद्रव्यप्रत्ययमोहरागद्वेषादिभावैकगतत्वेन वर्त्तते तदा पुगलकर्मप्रदेशस्थितत्वात्परमेकत्वेन युगपजानन् गच्छंश्च परसमय इति प्रतीयते । एवं किल समयस्य द्वैविध्यमुद्धावति ॥ २॥ दयेन जनिता ये नारकाद्युपदेशव्यपदेशाः संज्ञाः पूर्वोक्तनिश्चयरत्नत्रयाभावात्तत्र यदा स्थितो भवत्ययं मानते हैं, उन दोनोंका निराकरण उत्पादव्ययध्रौव्यरूप कहनेसे हुआ। फिर वह कैसा है ? चैतन्यस्वरूपपनेसे नित्य उद्योतरूप निर्मल स्पष्ट दर्शन ज्योतिःस्वरूप है-चैतन्यका परिणमन दर्शन ज्ञानस्वरूप है । इस विशेषणसे चैतन्यको ज्ञानाकारस्वरूप नहीं माननेवाले सांख्यमतियोंका निराकरण हुआ। फिर वह कैसा है ? । अनंतधर्मों में रहनेवाला जो एक धर्मीपना उससे जिसका द्रव्यपना प्रगट हुआ है, अनंतधर्मोंकी एकता वही द्रव्यपना है । इस विशेषणकर वस्तुको धर्मोंसे रहित माननेवाले बौद्धमतीका निषेध हुआ। फिर वह कैसा है ? । क्रमरूप और अक्रमरूप प्रवृत्त हुए जो अनेकभाव उस स्वभावपनेसे जिसने गुणपर्याय अंगीकार किये हैं। पर्याय तो क्रमवर्ती हैं और गुण सहवर्ती होते हैं इसलिये सहवर्तीको अक्रमवर्ती भी कहते हैं । इस विशेषणसे पुरुषको निर्गुण माननेवाले सांख्यादिकोंका निरास हुआ। फिर कैसा है ? । अपने और अन्य द्रव्योंके आकारके प्रकाशन करनेमें समर्थपना होनेसे जिसने समस्तरूपके झलकानेवाला एकरूपपना पालिया है अर्थात् जिसमें अनेक वस्तुओंका आकार झलकता है ऐसे एक ज्ञानके आकाररूप है। इस विशेषणकर ज्ञान अपनेको ही जानता है परको नहीं जानता ऐसा एकाकार माननेवालेका तथा अपनेको नहीं जानता परको जानता है ऐसे अनेकाकार ही माननेवालेका व्यवच्छेद हुआ। फिर कैसा है ? जुदे जुदे जो अवगाहनगतिस्थिति हेतुपना तथा रूपीपनास्वरूप जो द्रव्योंके गुण उनके अभावसे और असाधारण चैतन्यरूपपने स्वभावके सद्भावसे आकाश धर्म अधर्म काल पुद्गल-इन पांच द्रव्योंसे भिन्न (अलग) है । इस विशेषणसे एक ब्रह्मवस्तुको ही माननेवालेका व्यवच्छेद हुआ । फिर कैसा है ? अनंत अन्यद्रव्योंसे अत्यंत एकक्षेत्रावगाहरूप होनेपर भी अपने स्वरूपसे न छूटनेसे टंकोत्कीर्ण चैतन्यस्वभावरूप है । इस विशेषणसे वस्तुस्वभावका नियम बतलाया है ॥ ऐसा जीवनामा पदार्थ समय है । जब यह सब पदार्थोंके स्वभाव प्रकाशनेमें समर्थ ऐसे केवलज्ञानके उत्पन्न करनेवाली भेदज्ञानज्योतिके उदय होनेसे सब परद्रव्योंसे छूट दर्शनज्ञानमें निश्चितप्रवृत्तिरूप आत्मतत्त्वसे एकपनेरूप लीन हो प्रवृत्ति करता है, तब दर्शन ज्ञान चारित्रमें ठहरनेसे अपने स्वरूपको एकतारूपकर एक कालमें जानता तथा परिणमता हुआ खसमय कहलाता है । और जब यह अनादि अविद्यारूप मूलवाले कंदके समान मोहके उदयके अनुसार प्रवृत्तिके आधीनपनेसे दर्शन ज्ञान स्वभावमें निश्चितवृत्तिरूप आत्मस्वरूपसे छूट परद्रव्यके निमित्तसे उत्पन्न मोहरागद्वेषादिभावोंमें एकता २ समय.
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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