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________________ अध्याय । सुबोधिनी टीका। % 3A भावार्थ-मलिनता करनेवाला मोहनीयका उदय है । जब मोहनीयका उदय नहीं है तो उससे होनेवाली मलिनता भी नहीं हो सक्ती है। तच्छुद्धत्वं सुविख्यातं निर्जराहेतुरञ्जसा । निदानं संवरस्यापि क्रमान्निर्वाणभागपि ।। ६२६ ॥ अर्थ-वह शुद्धता निर्जराका समर्थ कारण है यह बात सुप्रसिद्ध है तथा संवरका भी कारण है और क्रमसे मोक्ष प्राप्त करानेवाली भी है । शुद्धता ही निर्जरा, संवर और मोक्ष हैयद्वा स्वयं तदेवार्थानिर्जरादित्रयं यतः । शुद्धभावाविनाभावि द्रव्यनामापि तत्त्रयम् ॥ ६२७ ॥ . ___ अर्थ-अथवा वह शुद्धता ही स्वयं निर्जरा, संवर और मोक्ष है। क्योंकि शुद्ध भावोंका अविनाभावी जो आत्मद्रव्य है वही निर्जरा, संवर और मोक्ष है । भावार्थ-आत्मिक शुद्धभावों का नाम ही निर्नरादित्रय है इसलिये निश्चय नयसे शुद्ध-आत्मा ही निर्जरादि त्रय है। निर्जरादिनिदानं यः शुद्धो भावश्चिदात्मनः । परमाहः स एवास्ति तद्वानात्मा परं गुरुः ॥ ६२८ ॥ __ अर्थ-जो निर्जरादिकका कारण अत्माका शुद्ध भाव है वही परम पूज्य है और उस शुद्ध भावको धारण करनेवाला आत्मा ही परम गुरु है। गुरुपनेमेंहेतुन्यायाद्रुत्वहेतुः स्यात् केवलं दोषसंक्षयः । निर्दोषो जगतः साक्षी नेता मार्गस्य नेतरः ॥ ६२९ ॥ अर्थ-न्याय रीतिसे गुरुत्त्व ( गुरुपने ) का कारण केवल दोषोंका भले प्रकार क्षय होना है, निर्दोष ही जगत्का जाननेवाला ( सर्वज्ञ ) है और वही मार्ग ( मोक्षमार्ग ) का नेता अर्थात् प्राप्त करानेवाला है । जो निर्दोष नहीं है वह न सर्वज्ञ हो सक्ता है, और न मोक्षको प्राप्त करनेवाला तथा करानेवाला ही हो सकता है। अल्पज्ञता गुरुपनेके नाशका कारण नहीं हैनालं छद्मस्थताप्येषा गुरुत्वक्षतये सुनेः । रागाद्यशुद्धभावानां हेतुर्मोहैककर्म तत् ॥ ६३० ॥ अर्थ-यह मुनि ( गुरु ) की अल्पज्ञता भी गुरुपनेको दूर करनेके लिये समर्थ नहीं है क्योंकि गुरुताको दूर करनेवाले रागादिक अशुद्ध भाव हैं, और उनका एक मात्र हेतु मोहनीय कर्म है। उ० २१
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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