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________________ पञ्चाध्यायी। [दूसरा भावार्थ-निर्मल चारित्रकी अपेक्षासे ही गुरुता आती है । ज्ञानकी हीनता गुरुखाका विघातक नहीं है किन्तु मोहनीय कर्म है। शङ्काकार नन्वातिव्यं कर्म वीर्यविध्वंसि कर्म च । अस्ति तत्राप्यवश्यं वै कुतः शुद्धत्त्वमत्र चेत् ।. १.... अर्थ-शङ्काकार कहता है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वीर्यको नाश करनेवाला अन्तराय कर्म, अभी उमस्थ गुरुओंमें मौजूद है, इसलिये उनमें शुद्धता कहांसे आई ? उत्तरसत्यं किन्तु विशेषोऽस्ति प्रोक्तकर्मत्रयस्य च । मोहकर्माविनाभृतं बन्धसत्त्वोदयक्षयम् ॥ ६३२ ॥ ॥ अर्थ—यह बात ठीक है कि अभी ज्ञानावरण आदि तीन घातिया कर्म छद्मस्थ गुरुओंमें मौजूद हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि ज्ञानावरण आदि कहे हुए तीनों कर्मोका वन्ध, सत्त्व, उदय और क्षय, मोहनीय कर्मके साथ अविनाभावी है। खुलासातद्यथा वध्यमानेऽस्मिंस्तबन्धो मोहवन्धसात् । तत्सत्त्वे सत्त्वमेतस्य पाके पाकः क्षये क्षयः। ६३३॥ अर्थ-मोहनीय कर्मके बन्ध होने पर ही उसीके आधीन ज्ञानावरणादि बन्धयोग्य प्रकृतियोंका बन्ध होता है, मोहनीय कर्मके सत्त्व रहेने पर ही ज्ञानावणादि कर्मोंका सत्त्व रहता है, मोहनीय कर्मके पकने पर ही ज्ञानावरणादि पकते हैं और मोहनीय कर्मके क्षय होने पर ही ज्ञानावरणादि नष्ट हो जाते हैं। आशङ्कानोचं छद्मस्थावस्थायामागेवास्तु तत्क्षयः। अंशान्मोहक्षयस्यांशात्सर्वत: सर्वतः क्षयः ॥ ६३४॥ अर्थ-छद्मस्थ अवस्थामें, मोहनीय कर्मका ज्ञानावरणादिसे पहले ही क्षय होजाता है, ऐसी आशंका भी नहीं करना चाहिये क्योंकि अंशरूपसे मोहनीयका क्षय होनेसे ज्ञानावरणादिका अंश रूपसे क्षय हो जाता है, और मोहनीयका सर्वथा क्षय होनेसे ज्ञानावरणादिका भी सर्वथा क्षय होनाता है। नासिद्धं निर्जरातत्त्वं सदृष्टेः कृत्स्नकर्मणाम् । आदृङ्मोहोदयाभावात्तचासंख्यगुणं क्रमात् ॥ ६३५ ॥
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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