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________________ 28 चक्रवर्ती से युक्त होती है, तब शेष 4 विजय 4 वासुदेव तथा 4 बलदेव युक्त होती है । जयन्यकालमें 4 चक्री व 4 वासुदेव के अलावा की शेष विजय रिक्त रहती है। लेकिनओक विजय में चक्रवर्ती और वासुदेव दोनो साथ में नहि होते । (पंडुक वन में 4 अभिषेक शिला) मेरू पर्वत के शिखर उपर पंडुक नाम का वन है उसमें 500 योजन लंबी 250 योजन चौडी, 4 योजन जाडी (उंची ) व अर्जुन (सफेद) सुवर्ण की चार महाशिला चार दिशामें है, उस शिला के उपर उस दिशा में जन्मे हुए श्री तीर्थकर परमात्मा का जन्माभिषेक होता है। ( 306 - महानिधि ) 34 विजयो में से हर विजय में नैसर्प आदि नाम वाली 9-9 निधि पांचमे खंड में महानदी के किनारे के पास होती है। जैसे . गंगा महानदी के पूर्व किनारे की तरफ 9 निधि भूमि में है, हर निधि 12 योजन लम्बी 9योजन चौडी व 8 योजन उंची पेटी के आकारवाली है तथा सुवर्ण से बनी हुई 8-8 चक्र उपर रही हुई है (आग गाडी के डिब्बे की तरह) उसमें हर परिस्थिति को बताने वाली शाश्वत पुस्तक होती है । हर निधि में उसी प्रकार के पदार्थ तैयार मिलते है । व उनकेअपने अपने नाम समान नामवाले देव अधिपति होते है। - पांचवे खंड को साधकर चक्रवर्ती 9 निधि को भी साधता है। चक्रवर्ती दिग्विजय करके अपने नगर में आते है । तब वे निधि भी पाताल मार्ग से चक्रवर्ती के नगर बहार आ जाती है । (650 पदार्थ प्रदीप
SR No.022363
Book TitlePadarth Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnajyotvijay
PublisherRanjanvijay Jain Pustakalay
Publication Year132
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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