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________________ चैत्यवंदन भाष्य ० तीन निसिहि . (1) प्रथम निसिहि - मंदिर के अग्र द्वार पर प्रवेश करते समय कहने की है में अभी सभी पाप कार्यो का त्याग करता हुँ, यह सूचन प्रथम निसिहि का है, इसलिए मंदिर में प्रवेश करने के बाद किसि भी प्रकार की सांसारिक बात न करे । (2) दूसरी निसिहि - गभारे में प्रवेश करते समय दूसरी निसिहि बोलनेकी है, इसका अर्थ यह है कि मंदिर के दूसरे सभी कार्यों का त्याग करके भगवान की पूजा करता हुँ । उस समय केवल परमात्मा की पूजा में ध्यान होना चाहिए । पूजारी को , सलाट को , कारीगर आदि को कीसी भी प्रकार का काम नहि बताना चाहिए । (3) तीसरी निसिहि . परमात्मा की अंगपूजा, अग्रपूजा होने के बाद भावपूजा अर्थात् चैत्यवंदन करते पहले तीसरी निसिहि कहनी चाहिजे इसका अर्थ यह है कि अभी द्रव्य पूजा का त्याग करके में भावपूजा रूप चैत्यवंदन करता है । अतः चैत्यवंदन करते करते अथवा बादमें प्रक्षालादि नहि किया जाता। | तीन प्रदक्षिणा अनादि काल के भव के फेरे को दूर करने के लिए और रत्नत्रय की प्राप्ति करने के लिए परमात्मा की दायी तरफ से शरू करके तीन प्रदक्षिणा देने की है । जहां पर मंदिर में भमती हो वहाँ तीन प्रदक्षिणा देनी चाहिए । नहि तो हाथ जोड के आवर्त करे । पदार्थ प्रदीप 1 66
SR No.022363
Book TitlePadarth Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnajyotvijay
PublisherRanjanvijay Jain Pustakalay
Publication Year132
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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