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________________ किमाहार दंडक के जीवो को कितनी दिशा का आहार होता है उसका विचार । पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, उर्ध्व एवं अधो ये छ दिशा है। . उर्ध्वलोक की अंतिम प्रतर के कोणेमें रहे हए जीव को आसपास के दो ओर एक नीचे की तरफका आहार होता है, क्योंकि शेष दिशा में अलोक होने से आहार मिलना अशक्य है, अक प्रदेश नीचे रहने वाले को चार दिशा का आहार होता है और उसके पास में रहे हए जीव को पांच दिशा का आहार होता है, शेष को छ दिशा का आहार होता है । | तीन प्रकार की संज्ञा । 1. हेतुवादोपदेशिकी - जिसमें केवल वर्तमान का ही विचार हो, जैसे कीडी (चिट्टी) केवल सुंघने का ध्यान देती है, लेकिन इसमें पहली भी मर गई में भी मर जाऊंगी इत्यादि भूत भावी का जिसमें विचार न हो । असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक 13 भेदो में मात्र यह संज्ञा ही होती है । 2. दीर्घकालिकी संज्ञा - केवल संज्ञी पंचेन्द्रिय जिसने मनंपर्याप्ति पूर्ण की होती है, उसको यह संज्ञा होती है, इसके द्वारा त्रिकाल के सुख - दुःख के हेतु आदि का जीव विचार कर सकता है । 3. द्रष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा - सम्यक्त्व संबंधि वाद • कथन उसके उपदेश | अपेक्षावाली यह संज्ञा होती है, अर्थात् जो समकिती जीवात्मा ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम वाला यथाशक्ति योग्य आचरण करने वाला हो, एसे छद्मस्थ को यह संज्ञा होती है । दीर्घकालिकी संज्ञा के आधार से जीव के संज्ञी और असंज्ञी भेद पडते है। पदार्थ प्रदीप 380
SR No.022363
Book TitlePadarth Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnajyotvijay
PublisherRanjanvijay Jain Pustakalay
Publication Year132
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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