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________________ 1 २७० ] चौथा अध्याय पांचप्रकारका झूठ है उसका सदा त्याग करना चाहिये ऐसा कहते हैं मोक्तुं भोगोपभोगांगमानं सावद्यमक्षमाः। ये तेऽप्यन्यत्सदा सर्व हिंसेत्युज्झंतु वानृतं ।। ४४ ॥ अर्थ-जो गृहस्थ समस्त अयोग्य बचनोंके त्याग करनेमें असमर्थ हैं वे भोगोपभोगके साधन मात्र झूठको बोल सकते हैं यह बात वा शब्दसे सूचित होती है । वा अर्थात् बहुत कहनेसे क्या ? जो गृहस्थ भोजन आदि भोग और स्त्री वस्त्र आदि 'उपभोग इन दोनों के साधन ऐसे 'खेत जोत' इत्यादि प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले 'पापसहित वचनों को छोड नहीं १-भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः । उपभोगोऽशनवसनप्रभृतिपंचेंद्रियो विषयः ॥ अर्थ-जो भोजन, गंध, माला आदि पंचेंद्रियोंके ऐसे विषय हैं कि जो भोगकर छोड दिये जाते हैं जिनका भोग फिर नहीं हो सकता उन्हें भोग कहते हैं, और जो वस्त्र स्त्री आदि ऐसे विषय है कि जो वेही बार बार भोगनेमें आते हैं उन्हें उपभोग कहते हैं। -यह भूमि मेरी है, मैं इस खेतको जोतता हूं किंवा जोतूंगा इत्यादि वाक्योंको पापसहित वचन कहते हैं। क्योंकि यह भूमि मेरी है ऐसा कहनेसे उस भूमि संबंधी होनेवाली हिंसा भी उसीको लगती है, — मैं जोतता हूं' 'तू जोत ' ऐसा कहनेमें जोतनेमें जो हिंसा होगी उसका भागी वह होगा ही और हिंसा होना वा करना पाप है वह पाप जिन वचनोंसे सूचित होता है वे सब पापसहित वचन कहलाते हैं।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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