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________________ ((Hinाय) आचार-मीमांसा सम्पूर्ण जैन वांङमय में चरणानुयोग का विशेष महत्व है, क्योंकि इनमें आचार के नियमों का विशद विवेचन उपलब्ध है। उपासकाध्ययन, श्रावक धर्म, श्रावकाचार, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, वसुनन्दी श्रावकाचार, सागारधर्मामृत, मूलाचार, भगवती आराधना, आचारांगसूत्र, आराधनासार, शुभाषित रत्न संदोह, मुनिप्रायश्चितचरित्रसार, चरणसार, अराधना संग्रह, अनगार धर्मामृत, प्रवचनसार, आदि ग्रन्थ चरणानुयोग मूलक है जिनमें मुनि और श्रावक दोनों के आचार संबंधी नियमों पर प्रकाश डाला गया है। __ मूलाचार आचारांग सूत्र, अनगार धर्मामृत, चरणसार, आराधनासार एवं प्रवचनसार आदि चरणानुयोग विषयक ग्रन्थों में मुनियों के पंचमहाव्रत - पंच समिति पालन, पंचेन्द्रिय निग्रह, केशलोच करना, षडावश्यक पालन, वस्त्रत्याग, भूशयन, अदन्तधावन, खड़े-खड़े भोजन करना एवं एक बार भोजन करना आदि अट्ठाईस मूल गुणों का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है और बताया गया है कि इन मूल गुणों के पालन करने से निर्विकल्प सामायिक चारित्र की प्राप्ति होती है जिनसे मुनिपद की सिद्धि होती है। प्रशमरति प्रकरण भी चरणानुयोग मूलक ग्रन्थ है जिसमें आचार संबंधी नियमों का विस्तृत कथन किया गया है। इस ग्रन्थ के कर्ता आचार्य उमास्वाति ने आचार को दो भागो में वर्गीकृत किया है- (1) मुनि आचार (2) श्रावक आचार। इनमें मुनि आचार को सर्वोत्कृष्ट माना गया है, क्योंकि मूल गुण थारक मुनियों को ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है। अतः मुनिआचार उपादेय है। मुनि स्वरुप : प्रशमरति प्रकरण में मुनि स्वरुप का कथन करते हुए बतलाया गया है कि जो पंचमहाव्रत आदि 26 (अट्ठाईस) मूल गुणों का सम्यक् पालन कर निर्विकल्प सामायिक
SR No.022360
Book TitlePrashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManjubala
PublisherPrakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
Publication Year1997
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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