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________________ 57 तीसरा अध्याय चारित्र को प्राप्त करता है, वह मुनि कहलाता है। वास्तव में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के आराधक मुनि को ही मुनिपद की प्राप्ति होती है 1। प्रशमरति प्रकरण में मुनियों के पालन करने योग्य आचार संबंधी नियमों का उल्लेख किया गया है जो संक्षेप में निम्नांकित हैं : भावना, धर्म, व्रत आदि। भावना (अनुप्रेक्षा) : सर्वप्रथम मुनि भावना का सम्यक चिन्तन करते हैं। यहाँ भावना और अनुप्रेक्षा दोनों एकार्थवाची शब्द है। प्रशमरति प्रकरण में भावना की परिभाषा देते हुए बतलाया गया है कि आगम के अर्थ के मन में चिन्तन करना भावना या अनुप्रेक्षा है । __ भावना के बारह प्रकार बतलाये गये हैं - अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, कर्मों की आसव-विधि, संवर-विधि, निर्जरा, लोक विस्तार, धर्मस्वाख्यातत्व, बोधि दुर्लभ। इनके विस्तारपूर्वक कथन क्रमशः इस प्रकार हैं :अनित्वत्व : अनित्यत्व के स्वरुप की चर्चा करते हुए बतलाया गया है कि संसार की सभी वस्तुएँ अनित्य है, कुछ भी नित्य नही है, इस प्रकार के चिन्तन करने को अनित्य भावना कहते हैं। इष्ट जन का संयोग, रिद्धि, विषय-सुख, सम्पदा, आरोग्य शरीर, यौवन और जीवन - ये सभी अनित्य हैं । इस प्रकार इन सबकी अनित्यता का विचार करते रहने से राग उत्पन्न नहीं होता और राग रहित प्राणि ही मोक्ष की चिन्ता में लगा रह सकता है। इसलिए मुनियों के लिए अनित्यत्व भावना का पालन करना आवश्यक है । अशरणत्व : जन्म, जरा और मृत्यु से घिरे हुए प्राणि के लिए कहीं भी शरण नहीं है, ऐसा चिन्तन करने को अशरणत्व भावना कहते है । केवल जिनेन्द्र देव के वचनों के सिवाय अन्य कुछ भी शरण नहीं है ऐसा मानकर आचरण करना अशरणत्व भावना का पालन करना है । एकत्व भावना : मै अकेला हूँ इत्यादि विचारने को एकत्व भावना कहते हैं । संसार- समुद्र में जीव जहाँ जहाँ जन्म लेता है या मरता है, वह भव-आवर्त कहा जाता है। उस भव रुपी आवर्त में जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरता है। जन्म लेते या मरते समय उसका कोई भी सहायी नहीं होता है। मरणोपरांत नरकादि गतियों में अपने किये हुए शुभ-अशुभ कर्मों के फल को वह स्वयं ही भोगता है। जीव का हित उसके द्वारा प्राप्त होनेवाला मोक्ष ही है, क्योंकि इसका कभी भी विनाश नहीं होता। अतः जब यह जीव अकेला ही कष्ट भोगता है तो उसे अकेले ही अपना हित साथना कर मोक्ष प्राप्त करना श्रेयष्कर है 10 ।
SR No.022360
Book TitlePrashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManjubala
PublisherPrakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
Publication Year1997
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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