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________________ 59 लोक-स्वरूप एवं जीव-विवेचन (1) के १८ भेद इस तरह हैं- १. गोमेध २. कांक ३. स्फटिक ४. लोहिताक्ष ५. नीलम ६. मसारगल्ल ७. भुजमोचक ८. इन्द्रनील ६. चन्दन १०. गेरू ११. हंसगर्भ १२. सौगन्धिक १३. पुलक १४. चन्द्रप्रभ १५. वैडूर्य १६. जलकान्त १७. रुचक १८. सूर्यकान्तमणि। अन्य- १. नदी किनारे दीवार की मिट्टी २. मिट्टी की रेत ३. सूक्ष्म कणी रूप सिकता ४. छोटे-छोटे पत्थर समूह-उपल ५. बड़ी शिला ६. सारी जमीन ७. समुद्र का नमक ८. सुवर्ण ६. चान्दी १०. तांबा ११. लोहा १२. जस्ता १३. सीसा १४. वज्र १५. हरताल १६. हिंगुल १७. मनःशील १८. प्रवाल १६. पारद २०.सौवीर अंजन २१. अभ्रक का पड समुदाय २२. अभ्रक मिश्रित रेती। इसी प्रकार के अन्य जो भी पद्मरागादि रत्न है वे सब इस अन्य वर्ग के अन्तर्गत ही आते 2. बादर अपकाय- अप्नामकर्म के उदय से जल रूप बादर शरीर को धारण करने वाले जीव अप्काय एकेन्द्रिय कहलाते हैं। बादर अप्काय जीव पर्याप्तक और अपर्याप्तक रूप से दो प्रकार के होते हैं। पर्याप्त बादर अप्कायिक के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों भेद होते हैं। आचारांग सूत्र के नियुक्तिकार ने बादर अप्काय के ५ ही भेदों का कथन किया है तथा उत्तराध्ययनसूत्र में भी पाँच ही भेद गिनाए हैं जबकि उपाध्याय विनयविजय ने यहाँ अनेक भेद किये हैं- १. स्वाभाविक शुद्ध २. स्वाभाविक शीतल ३. स्वाभाविक उष्ण ४. स्वाभाविक खारा, ५. थोड़ा खारा ६. अति खारा ७. खट्टा ८. थोड़ा खट्टा ६. अत्यन्त खट्टा १०. हिम का पानी ११. बर्फ १२. ओले १३. कुहरे का पानी १४. अंतरिक्ष से गिरता पानी १५. पृथ्वी का भेदन कर तृण के अग्रभाग पर रहा हरत नाम का जल १६. घृतवर १७. मदिरा में रहा इक्षुवर १८. वारुणीवर १६. क्षीरवर २०. घनोदधि। 3. बादर तेजस्काय-तेजस्कायनामकर्म के उदय से तेजस् रूप बादर शरीर को धारण करने वाले जीव तेजस्कायिक एकेन्द्रिय कहलाते हैं। बादर तेजस्कायिक जीव के १३ भेद इस प्रकार हैं:- १. शुद्ध अग्नि २. वज्राग्नि ३. ज्वालाग्नि ४. स्फुल्लिंग ५. अंगार ६. विद्युत ७. अलात की आग ८. उल्का ६. तणखा १०. निर्घात अग्नि-११. कणिआ अग्नि १२. काष्ठ घर्षण से उत्पन्न आग १३. सूर्यकान्ति मणि आदि से उत्पन्न अग्नि। ... ..इसी तरह अन्य उपाय से उत्पन्न हुई ऐसी अग्नि भी इसी के अन्तर्गत आती है। वर्णादि के भेद से पर्याप्त बादर तेजस्काय के हजारों भेद होते हैं। 4. बादर वायुकाय- वायुकायनामकर्म के उदय से वायु रूप बादर शरीर को धारण करने वाले
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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