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________________ 212 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन ५. इस गुणस्थान में साधक गृहस्थाश्रम में रहता हुआ भी वासनाओं पर यथाशक्ति नियन्त्रण करने का प्रयास करता है। ६. पंचम गुणस्थानवर्ती साधक यदि साधना पथ पर फिसलता है तो उसमें संभलने की क्षमता भी होती है। यदि साधक प्रमाद के वशीभूत न हो तो वह विकास क्रम में आगे बढ़ता है, अन्यथा प्रमाद के वशीभूत होने पर वह अपने स्थान से पतित हो जाता है। ७. पंचम गुणस्थानवर्ती आत्मा वासनामय जीवन से आंशिक निवृत्ति लेता है तथा यथाशक्ति अहिंसा, सत्य, अचौर्य आदि अणुव्रतों को ग्रहण करता है। इस पंचम गुणस्थान का काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः देशोन पूर्वकोटि परिमाण है। प्रथम के चार गुणस्थान चारों गति- देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक के जीवों में पाए जाते हैं, किन्तु पाँचवां गुणस्थान मनुष्य और तिर्यंचों में ही होता है। 6. प्रमत्तसंयत गुणस्थान __ अल्पविरति से अपेक्षाकृत शान्ति लाभ होता है तब तो सर्वविरति से और भी अधिक लाभ होना चाहिए, इस विचार से प्रेरित होकर जीव जब चारित्रमोह को और अधिक शिथिल करके 'स्व' रूप स्थिरता और 'स्व' रूप लाभ प्राप्त करने की चेष्टा करता है तब वह सर्वविरति संयम प्राप्त करता है। संयम प्राप्त कर लेने पर भी जीव कषाय, निद्रा, विकथा आदि प्रमाद में रहता है। ऐसी स्थिति में 'जीव प्रमत्तसंयत' कहलाता है और आत्मा का यह गुणपरिणाम 'प्रमत्तसंयम' कहलाता है संयतस्सर्वसावद्ययोगेभ्यो विरतोऽपि यः । कषाय-निद्रा-विकथादि-प्रमादैः प्रमाद्यति।। स प्रमत्तः संयतोऽस्य प्रमत्तसंयताभिधम्। गुणस्थानं प्राक्तनेभ्यः स्याद्विशुद्धिप्रकर्षभृत् ।। पाँचवें गुणस्थान की अपेक्षा जीव के अध्यवसाय की धारा में जब अधिक विशुद्धता आती है, तब जीव छठे गुणस्थान को प्राप्त होता है। इस गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरणीय कषायचतुष्क का क्षयोपशम हो जाने से जीव निर्ग्रन्थ मुनि अवस्था को स्वीकार करता है। धवलाटीकाकार के अनुसार जो प्रमत्त होते हुए भी संयत होते हैं उन्हें प्रमत्तसंयत कहते हैं"प्रकर्षेण मत्ताः प्रमत्ताः, सम्यग्यताः विरताः संयताः। प्रमत्ताश्च ते संयताश्च प्रमत्तसंयताः।"" प्रमत्त और संयत दो शब्दों के योग से निष्पन्न प्रमत्तसंयत शब्द में प्रमत्त और संयत दोनों ही शब्द भिन्न-भिन्न अर्थ के द्योतक हैं। 'प्रमत्त' शब्द से तात्पर्य है जो प्रकर्षरूप से प्रमादवान है। जैन ग्रन्थों में संयत शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ प्राप्त हैं- १. षट्खण्डागम की धवला टीका के अनुसार भले
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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