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________________ जीव-विवेचन (3) 213 प्रकार से जानकर और श्रद्धान कर जो जीव यमसहित होता है वह संयत है। २. मूलाचार के अनुसार जो जीव सम्यक् प्रकार से प्रयत्नशील है अथवा व्रत सहित है वह संयत है।६ ३. पंचसंग्रह के आधार पर सर्वसंयम घातक प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय न होने से जो जीव तीन करण तीनयोग से सर्वसावध व्यापारों से सर्वथा निवृत्त हो जाता है वह संयत है। आप्त, आगम और पदार्थों में यथार्थ श्रद्धा उत्पन्न होने पर जीव में स्वतः संयम की उत्पत्ति होती है और जीव हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह इन पापों से विरत होने लगता है। विरति से उसके कषायों में मन्दता आती है और वह निर्ग्रन्थ मुनि अवस्था को स्वीकार करता है। इस निर्ग्रन्थ अवस्था में जीव बाह्य परिग्रह से परिपूर्ण निवृत्त होता है, परन्तु आभ्यन्तर परिग्रह की निवृत्ति के लिए वह प्रयत्न करता है। जब तक अध्यवसायों में अप्रमत्तभाव रूप स्व स्वरूप रमण की तीव्रता नहीं आती, तब तक वह प्रमत्त संज्ञा को प्राप्त रहता है। प्रमत्त अवस्था में रहने पर उसके संयम का नाश नहीं होता है, बल्कि मलदोष उत्पन्न होता है। जब उसके अध्यवसायों में अप्रमत्तता आती है, उस समय वह अप्रमत्त अवस्था का वरण कर सातवें गुणस्थान अप्रमत्तसंयत में चला जाता है। परन्तु देहभाव रूप प्रमाद का पुनः सेवन करने से वह जीव छठे गुणस्थान में आ जाता है। इस प्रकार श्रमण छठे से सातवें तथा सातवें से छठे गुणस्थान में दोलायमान स्थिति में रहते हैं। षट्खण्डागम के धवलाटीकाकार ने प्रमत्तसंयत को चित्रलाचरण भी कहा है। वह संयम के साथ-साथ प्रमाद मिश्रित आचरण करता है अतः वह प्रमत्त-संयत एवं चित्रलाधरण युक्त कहा जाता है। पारिभाषिक शब्दावली में प्रमत्तसंयत गुणस्थान की स्थिति तब बनती है, जब अनन्तानुबन्धि-कषाय, अप्रत्याख्यानावरण कषाय एवं प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदयाभावी क्षय होता है अथवा सदवस्थारूप उपशम होता है। साथ ही संज्वलन कषाय और नोकषाय के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभाव रूप क्षय होता है और देशघाती स्पर्धकों का तीव्र उदय होता है। इस प्रकार कषायों के उपशमन से संयम की लब्धि होती है और उदय से संयम में मलदोष उत्पन्न करने वाला प्रमाद भी उत्पन्न हो जाता है। अतएव इन स्थितियों में उत्पन्न होने वाला भाव प्रमत्त होते हुए भी संयत होता है। इस गुणस्थान में सम्यक्त्व और चारित्र दोनों का क्षयोपशम होता है, अतः यह गुणस्थान क्षायोपशमिक भाव रूप है। देशविरत गुणस्थान की अपेक्षा से इस गुणस्थान में विशुद्धि का प्रकर्ष और अविशुद्धि का अपकर्ष होता है और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की दृष्टि से विशुद्धि का अपकर्ष एवं अविशुद्धि का उत्कर्ष होता है।
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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