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________________ 211 जीव-विवेचन (3) कहलाते हैं और जीव का यह स्वरूपविशेष 'देशविरत' गुणस्थान कहलाता है। सामान्य भाषा में हिंसा, झूठ, चोरी, परस्त्रीगमन, अशुभाचार, क्रोध, लोभ आदि कषायों से आंशिक निवृत्ति देशविरत है। पारिभाषिक शब्दावली में अनन्तानुबन्धिकषाय चतुष्क एवं अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क दोनों के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभाव क्षय तथा इन्हीं का सदवस्थारूप उपशम होने पर एवं प्रत्याख्यानावरणकषाय चतुष्क के उदय होने से जीव में उत्पन्न होने वाले आत्मिक भावों की स्थिति प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होने से इस गुणस्थान में जीव पाप-क्रियाओं से सर्वथा निवृत्त नहीं होता है, किन्तु अप्रत्याख्यानावरण का उदय न होने से देश (अंश) से पाप क्रियाओं से निवृत्त होता है। इस आंशिक त्यागमयी अवस्था के कारण ही यह आत्मिक भाव देशविरत गुणस्थान कहा जाता है और देशविरत गुणस्थानवी जीव को 'देशविरति श्रावक' भी कहते हैं। इस गुणस्थानवी जीव को संयत और असंयत की मिश्र अवस्था के कारण 'संयतासंयत' और 'विरताविरत' संज्ञा भी देते हैं। एक ही समय में जीव त्रसहिंसा से विरत और स्थावर हिंसा से अविरत होने के कारण विरताविरत अथवा संयतासंयत अथवा देशसंयत कहलाता है। __ अनन्तानुबन्धि-कषाय एवं अप्रत्याख्यानावरणकषाय दोनों के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभाव क्षय और उन्हीं दोनों कषायों के सदवस्थारूप उपशम होने से जीव में संयम होता है तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क के देशघाती स्पर्धकों के उदय से जीव में असंयम होता है। अतः पंचम गुणस्थान में जीव संयमासंयम गुण परिणाम वाला होता है। यह संयमासंयम भाव क्षायोपशमिक है। अतः जीव में संयमासंयम रूप अप्रत्याख्यानचारित्र उत्पन्न होता है। लक्षण१. यह गुणस्थान आध्यात्मिक विकास की पांचवीं श्रेणी है, परन्तु सम्यक् आचरण की दृष्टि से यह प्रथम सोपान है। २. चतुर्थ अविरत-सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में साधक कर्त्तव्याकर्त्तव्य का विवेक रखते हुए भी कर्तव्य पथ पर आरूढ़ नहीं हो पाता है, जबकि पंचम गुणस्थानवर्ती साधक कर्त्तव्यपथ पर यथाशक्ति चलने का प्रयास प्रारम्भ कर देता है। ३. इस गुणस्थान का साधक श्रावक के बारह व्रतों का आचरण करता है। कुछ एक व्रत लेते हैं और कुछ सर्वव्रत विषयक सावद्य योगों का त्याग करते हैं। ४. अधिकाधिक व्रतों का पालन करने वाले कुछ श्रावक तीन प्रकार की अनुमति को छोड़कर सावद्ययोगों का सर्वथा त्याग करते हैं।
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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