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________________ 210 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन नहीं किया जा सकता है। ५. सम्यक्त्व होते हुए भी अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से जीव मोक्ष महल में जाने के लिए सोपान तुल्य व्रत-प्रत्याख्यान रूपी धर्म को जानते हुए भी ग्रहण नहीं कर सकता। ६. प्रथम तीन गुणस्थानों की अपेक्षा अनन्त गुणा विशुद्धि होती है। ७. यह गुणस्थान आध्यात्मिक विकास की वह अवस्था है जिसमें साधक को यथार्थता का बोध या सत्य का दर्शन हो जाता है। वह सत्य को सत्य रूप में और असत्य को असत्य रूप में जानता है। ८. जीव का इस अवस्था में दृष्टिकोण सम्यक् होता है, परन्तु उसका आचरण नैतिक नहीं होता है। ६. अशुभ को अशुभ मानते हुए भी जीव अशुभ के आचरण से बच नहीं पाता। १०.इस अवस्था के साधक में वासनाओं पर अंकुश लगाने की अथवा संयम की क्षमता क्षीण __ होती है। ११. महाभारत के भीष्म पितामह के चरित्र समान इस अवस्था का साधक सत्य, शुभ और न्याय के पक्ष को समझते हुए भी असत्य, अशुभ और अन्याय का साथ छोड़ नहीं पाता। आध्यात्मिक विकास के तीन चरण हैं- दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान की भूमिका में दर्शन एवं ज्ञान दो चरण तो सम्यक् हो जाते हैं, किन्तु चारित्र या आचरण में पर्याप्त विकास नहीं होता है। इस गुणस्थानवी जीव में संयमघातक अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय का उदय रहता है, जिससे वह अशुभ को अशुभ मानते हुए भी उस अशुभ आचरण से बच नहीं पाता है। पारिभाषिक शब्दावली में अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का तात्पर्य है कि दर्शनमोहनीय कर्म शक्ति के उपशमित हो जाने अथवा उसके आवरण के क्षीण हो जाने के कारण व्यक्ति को यथार्थ बोध हो जाता है, लेकिन चारित्र मोहनीय कर्म की सत्ता रहने के कारण व्यक्ति सम्यक् आचरण नहीं कर पाता। सम्यक् श्रद्धान दर्शनमोहनीय के क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम से होता है। दर्शनमोहनीय के क्षय आदि कार्य करने के लिए यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीन करण करने पड़ते हैं। 5. देशविरत गुणस्थान देशविरत शब्द में 'देश' शब्द 'अल्प' अर्थ का और 'विरत' शब्द 'त्याग' का द्योतक है। अतः देशविरत से तात्पर्य है अल्प अंशों में त्याग करना। जो सम्यग्दृष्टि जीव सर्वविरति की आकांक्षा होने पर भी सर्व सावद्य का त्याग न कर सावधों की आंशिक मात्रा में निवृत्ति करते हैं वे 'देशविरति'
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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