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________________ 100 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन प्रकार हैं- पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक। ये सभी सूक्ष्म और बादर होते हैं। मात्र वनस्पतिकाय के तीन प्रकार हैं- सूक्ष्म, साधारण और प्रत्येक वनस्पतिकाय का जो साधारण भेद है उसे निगोद भी कहते हैं। ऐसी अवधारणा है। कि निगोद में एक शरीर के आश्रित अनेक जीव रहते हैं, इसलिए इसे अनन्तकायिक वनस्पति भी कहते हैं। ११. वनस्पतिकाय में जीव का प्रतिपादन जैन दर्शन में अत्यन्त प्राचीन है। आधुनिक विज्ञान ने भी इसे सिद्ध कर दिया है। फल, फूल, छाल, मूल, पत्ते, बीज आदि सबमें जैन दर्शन जीवत्व अंगीकार करता है। १२. पंचेन्द्रिय के जलचर, स्थलचर, परिसर्प, खेचर आदि भेद किए गए हैं। मनुष्य के पन्द्रह कर्मभूमि, ३० अकर्मभूमि और ५६ अन्तद्वीप के आधार पर भेद निरूपित हैं। देवों के मुख्यतः चार प्रकार हैं- भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक । १३. कौनसा जीव कहाँ रहता है इसका निरूपण उपाध्याय विनयविजय ने स्थानद्वार के अन्तर्गत किया है। जन्म के आधार पर उनकी निजस्थिति, समुद्घात और उपपात के द्वारा लोक के किस स्थान को जीव अवगाहित करता है, इसका निरूपण व्यवस्थित रीति से प्राप्त होता है। इसके अनुसार मनुष्य का अस्तित्व मात्र तिर्यक्लोक की कर्मभूमि, अकर्मभूमि, छप्पन अन्तरद्वीप, अढ़ाई द्वीप समुद्र इस तरह ४५ लाख योजन तक सीमित है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सर्वलोकव्यापी है, किन्तु बादर एकेन्द्रिय जीवों का स्थान भिन्न-भिन्न है। १४. पर्याप्ति का भी सम्बन्ध जीवों से है । आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन के रूप में पुद्गलों को परिणमन करने की शक्ति पर्याप्ति कहलाती है । एकेन्द्रिय जीव में इनमें से चार ही पर्याप्तियाँ होती हैं। जबकि द्वीन्द्रिय में पांच और शेष सभी में छह पर्याप्तियाँ होती हैं। जो जीव अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेता है वह पर्याप्त जीव तथा जो पर्याप्तियों को पूर्ण करने से पूर्व ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है वह अपर्याप्त जीव कहलाता है। पर्याप्त एवं अपर्याप्त जीव के भी लब्धि और करण पर्याप्त एवं अपर्याप्त भेद किए गए हैं। १५. जीवों की ८४ लाख योनियाँ मानी गई है। जीव के जन्म ग्रहण करने के स्थान को योनि कहते हैं। गुण, आकार आदि के आधार पर योनि के अनेक भेद किए गए हैं। संवृत, विवृत, संवृत - विवृत, सचित्त, अचित्त, मिश्र, शीत, उष्ण, शीतोष्ण आदि इस निरूपण की विशिष्टता को बतलाता है। योनि के आधार पर कुल उत्पन्न होता है। एक योनि में नाना
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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