SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लोक-स्वरूप एवं जीव-विवेचन (1) 101 प्रकार की जाति के जीवों के अनेक कुल होते हैं। सामान्यतः जीवों के कुलों की संख्या एक करोड़ सत्तानवें लाख पचास हजार स्वीकार की गई है। आधुनिक विज्ञान में इसे प्रजाति कह सकते हैं। १६.एक ही भव या आयुष्य में जीव की स्थिति भवस्थिति कहलाती है तथा एक ही प्रकार की काय में स्थिति कायस्थिति कहलाती है। जैन दार्शनिकों का यह चिन्तन है कि कोई जीव एक ही प्रकार के शरीर को अनेक भवों तक भी धारण कर सकता है। इसलिए वे काय स्थिति के आधार पर भी जीवों के सम्बन्ध में विचार करते हैं। भवस्थिति दो प्रकार की होती हैसोपक्रम और निरूपक्रम! सोपक्रम आयुष्य में बाह्य निमित्तों से अकाल मृत्यु भी सम्भव है तथा निरूपक्रम आयुष्य में आयुष्य का पूर्ण भोग किया जाता है । उसमें अकाल मृत्यु नहीं होती है। असंख्यात आयुष्यक मनुष्य और तिर्यंच, चरम शरीरी जीव, ६३ श्लाका पुरुष, नारक और देव निरुपक्रम आयु वाले होते हैं। शेष सभी जीव सोपक्रमी हो सकते हैं। कई ऐसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव हैं जो एकेन्द्रिय अवस्था में ही जन्म-मरण कर रहे हैं। इस दृष्टि से कायस्थिति अनन्तकाल तक भी सम्भव है। १७. जैन दर्शन में पाँच प्रकार के शरीरों का निरूपण हुआ है- औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मणा। इनमें तैजस ओर कार्मण शरीर संसारी जीवों के साथ सदैव रहते हैं। मोक्ष होने पर ही ये शरीर छूटते हैं। औदारिक और वैक्रिय शरीर मरण के समय छूटते हैं, किन्तु पुनः जन्म लेते ही यथायोग्य ग्रहण कर लिए जाते हैं। देवों और नारकों के मात्र वैक्रिय शरीर होता है तथा शेष जीवों के औदारिक शरीर होता है। मनुष्य एवं कुछ तिर्यंच जीव औदारिक शरीर के साथ वैक्रिय शरीर का निर्माण करने में भी समर्थ होते हैं। आहारक शरीर उन प्रमत्तसंयत मुनियों को प्राप्त होता है जिन्हें अपने प्रश्नों का समाधान दूर स्थित तीर्थंकरों से करना होता है। यह अत्यन्त सूक्ष्म पुद्गलों से बना होता है जो औदारिक शरीर से निकलकर कुछ ही समय में समाधान प्राप्त कर लौट आता है। उपाध्याय विनयविजय ने इन पाँच प्रकार के शरीरों का ११ द्वारों से विवेचन किया है, जिससे इनके स्वरूप, स्वामित्व, स्थिति, अन्तरकाल, अवगाहना आदि पर प्रकाश प्राप्त होता है। १८. शरीर के आकार को जैन पारिभाषिक शब्दावली में संस्थान कहा गया है। समचतुरस्र, न्यग्रोध परिमण्डल, सादि, वामन, कुब्जक और हुण्डक संस्थानों में से किस जीव को कौनसा संस्थान प्राप्त होता है, इसका भी निरूपण संस्थान के अन्तर्गत हुआ है। इनमें समचतुरस्र संस्थान को श्रेष्ठ बताया गया है क्योंकि यह शुभ लक्षणों से युक्त एवं शोभन
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy