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________________ 99 लोक-स्वरूप एवं जीव-विवेचन (1) द्रव्य का भी यथावश्यक विवेचन हुआ है। किन्तु जीव द्रव्य का ३७ द्वारों से व्यवस्थित विवेचन किया है। ५. लोकप्रकाशकार ने पुद्गल द्रव्य का लक्षण करते हुए इसमें ग्रहण गुण स्वीकार किया है, क्योंकि मात्र यही एक द्रव्य है जो इन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जाता है। लोकप्रकाश में पुद्गल के बन्धन, गति, संस्थान, भेद, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु और शब्द इन परिणामों के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए इनके भेदों का भी निरूपण किया गया है। ६. परमाणु का प्रतिपादन जैन दर्शन भी करता है। जैन दर्शन वैशेषिक दर्शन की भांति परमाणु को नित्य नहीं मानता। जैन दर्शन के अनुसार परमाणु में भी वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं। द्रव्यार्थिक नय से ये परमाणु शाश्वत होते हैं तथा पर्यायार्थिक नय से इन्हें वर्णादि के परिवर्तन के कारण अशाश्वत माना गया है। ७. धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्यों की मान्यता जैन दर्शन की निजी विशेषता है। इस प्रकार के अमूर्त द्रव्यों की परिकल्पना किसी अन्य भारतीय दर्शन में नहीं है। सांख्य दर्शन में अवश्य त्रिगुणात्मक प्रकृति के रजोगुण से गति, तमोगुण से स्थिति का ग्रहण किया गया है। ८. न्याय वैशेषिक आदि दर्शन जहाँ शब्द को आकाश का गुण स्वीकार करते हैं वहाँ जैन दर्शन शब्द को पुद्गल मानते हैं तथा आकाश का गुण अवगाहन मानते हैं। अवगाहन गुण के कारण ही आकाश अन्य द्रव्यों को स्थान देता है। ६. जैन दर्शन में जीवों की संख्या अनन्त स्वीकार की गई है तथा सब जीवों की स्वतंत्र सत्ता मानी गई है। सब अपने अपने कर्मों के अनुसार फल प्राप्त करते हैं। जीव के मुख्यतः दो प्रकार हैं- संसारी और सिद्ध। संसारी जीवों के विभिन्न अपेक्षाओं से दो, तीन, चार यावत् बाईस भेद निरूपित किए गए हैं। त्रस और स्थावर के आधार पर दो; स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद के आधार पर तीन; नरकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति एवं देवगति के आधार पर चार; एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय के आधार पर पाँच; पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय एवं त्रसकाय के आधार पर छह भेद प्रसिद्ध हैं। १०.उपाध्याय विनयविजय ने जीवों की विभिन्न अवस्थाओं का विवेचन जीवों के मुख्यतः अग्रांकित भेदों के आधार पर किया है- १. सूक्ष्म एकेन्द्रिय २. बादर एकेन्द्रिय ३. द्वीन्द्रिय ४. त्रीन्द्रिय ५. चतुरिन्द्रिय ६. तिथंच पंचेन्द्रिय ७. मनुष्य ८. देव और ६. नारक। इनके पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थाओं के आधार पर भी भेद किए गए हैं। एकेन्द्रिय के पाँच
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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