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________________ 75 लोक-स्वरूप एवं जीव-विवेचन (1) वृद्धि हुई। बिना घुघरू बांधे भरतनाट्यम के प्रयोग से मूंगफली और तम्बाकू के पौधे तेजी से बढ़े और उनमें दो सप्ताह पहले ही फूल आ गए। न्यूयार्क के प्रसिद्ध वैज्ञानिक कल्यू-वेक्स्टर ने संवेदन मापक गेल्वेनोमीटर से जुड़े पौधे के सामने आमलेट बनाने का प्रयोग किया गया। अण्डे फोड़ने पर पोलीग्राक यंत्र पौधे से उत्पन्न हुई गहरी संवेदनाओं को प्रकट करने लगा और इसी प्रकार पानी में उबलते अंडों के प्रति भी पौधे ने अपना शोक व्यक्त किया। इस प्रयोग से दो तथ्य प्रकट हाते हैं कि पौधा भी सजीव है और अण्डा भी सजीव है। यदि बीज को छह बार छह फुट की ऊँचाई से गिराया जाए तो वह मर जाता है। फिर उसे अच्छी भूमि में बोने पर भी उसमें से अंकुर नहीं निकलता है। इससे यह सिद्ध होता है कि वनस्पति भी अन्य प्राणियों के समान संवेदनशील होती है तथा काटने, छेदने, आघात पहुँचाने आदि से घायल हो जाती है तथा मर भी जाती है। अतः हमारा यह कर्त्तव्य है कि हम जिस प्रकार मनुष्य, पशु, कीट, पतंग आदि जीवों की रक्षा करते हैं उसी प्रकार वनस्पति के जीवों की भी यथासंभव रक्षा करनी चाहिए। दूसरा द्वार : जीवों के स्थान उपाध्याय विनयविजय ने अपनी कृति लोकप्रकाश में जीवों के सैंतीस द्वार निरूपित किए हैं। इनमें द्वितीय ‘स्थान द्वार' के द्वारा जीवों की स्थिति को प्रस्तुत किया है साथ ही यह भी निरूपण किया है कि किस तरह से जीव निजस्थिति, समुद्घात और उपपात के द्वारा लोक के असंख्यातवें भाग में रहता है। निजस्थिति- जहाँ जहाँ जीव रहते हैं वह जीवों की निजस्थिति होती है। उपपात स्थान- जीव एक भव से छूट कर दूसरे भव में जन्म ग्रहण करता है, उससे पूर्व वह जिस प्रदेश की यात्रा करता है उसे उपपात स्थान कहते हैं। सूक्ष्म जीव- काजल से भरी डिबिया के समान सम्पूर्ण लोक सूक्ष्म जीवों (पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय) से परिपूर्ण है। जिस प्रकार पुद्गल रहित कोई प्रदेश नहीं है, उसी प्रकार सूक्ष्म जीवों से रहित कोई स्थान नहीं है। सभी पर्याप्त-अपर्याप्त सूक्ष्म जीव उपपात, समुद्घात और निजस्थिति से सर्वलोक में व्याप्त हैं। बादर जीव- जैन आगम ग्रन्थों में अधोलोक और ऊर्ध्वलोक में पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक जीवत्व की सिद्धि के प्रमाण मिलते हैं तथा मध्यलोक (तिर्यक्लोक) में तेजस्काय सहित इन चारों का भी अस्तित्व वर्णित है। बादर एकेन्द्रिय जीवों के स्थान निम्न हैं
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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