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________________ लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन के समान अग्नि भी चलायमान होती है। इस दृष्टि से आगमों में इसे त्रसकाय भी कहा गया है तेऊवाऊ य बोधव्वा, उराला य तसा तहा। इच्चेए तसा तिविहा, तेसिं भेए सुणेह मे।। अग्निकाय के चलने की क्रिया दावानल (वन में लगी आग) के रूप में प्रकट होती है। दावानल के रूप में यह सैंकड़ों मील चली जाती है और बड़वानल (समुद्र में लगी आग) के रूप में भयंकर रूप धारण कर हजारों मील की परिधि में फैल जाती है। आगम ग्रन्थों में आग की सात लाख योनि एवं सात लाख कुलकोटि कही गई है। इसका समर्थन आधुनिक विज्ञान भी करता है। वैज्ञानिक आग के अगणित प्रकारों को चार भागों में विभाजित करते हैं- १. कागज और लकड़ी आदि में लगने वाली आग २. आग्नेय तरल पदार्थों और गैस से लगने वाली आग ३. विद्युत तारों में लगने वाली आग ४. ज्वलनशील धातु-तांबा, सोडियम और मैग्नीशियम में लगने वाली आग। __अतः यह निष्कर्ष निकलता है कि अग्निकाय सजीव है और अनेक प्रकार की योनियों व कुल वाली है। वायुकाय- जैन आगम ग्रन्थ के अनुसार अंगुल के असंख्यातवें भाग जितने वायुकाय के जीव होते हैं। विज्ञान भी यह सिद्ध करता है कि हवा में 'थेकसस' नामक जीव है और ये जीव इतने सूक्ष्म हैं कि सूई के अग्रभाग जितने स्थान में इनकी संख्या एक लाख से भी अधिक होती है। किन्तु जैनदर्शनानुसार इन्हें त्रसकोटि में रखा जा सकता है। स्थावर वायुकायिक जीव अतीव सूक्ष्म होते हैं। वनस्पतिकाय- वनस्पतिकाय सजीव है। इस विषयक जिन सूत्रों को विज्ञान सिद्ध करता है। वे सभी सूत्र जैन दर्शन ग्रन्थ के अलावा किसी भी अन्य दर्शन ग्रन्थ में नहीं मिलते हैं। ये सभी सूत्र विज्ञान की उत्पत्ति के पूर्व असंभव माने जाते थे। इन सूत्रों की रचना जैन आगमकारों ने हजारों वर्ष पूर्व ही कर दी थी। अतः यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वनस्पति विज्ञान के अनेक सूत्रों के मूलप्रणेता जैन आगमकार ही थे। वनस्पति को सजीव सिद्ध करने वाले प्रथम वैज्ञानिक श्री जगदीशचन्द्र बसु ने १९२० ई. में वनस्पति में चेतना अभिव्यक्त करने वाले ऐसे यंत्रों की रचना की जो पौधों की गतिविधि को करोड़ गुणा बड़े रूप में दिखाते थे। इनसे पौधों की गतिविधि की क्रिया, प्रतिक्रिया, प्रक्रिया स्वतः अंकित होती थी। भारतीय वैज्ञानिक प्रो. टी. एन. सिंह ने पौधों पर संगीत के प्रयोग किए। प्रतिदिन २५ मिनट वीणा की मधुर ध्वनि पौधों को सुनाने पर उनमें शीघ्र फल एवं फूल आए तथा २० प्रतिशत की
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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