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________________ गुण भी हीनाधिक रूप से होते हैं । सत्ता मात्र से तो सूक्ष्म अपर्याप्त निगोद जीव को अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र, अनन्त तप, अनन्त वीर्य तथा अनन्त उपयोग होते हैं । परंतु कर्मावरण से वे गुण अल्परुप से ही प्रगट हो पाते हैं । जिस प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्ता जीव में ये अनंत छह लक्षण हैं, उसी प्रकार चौदह जीव भेदों में भी ये लक्षण होते हैं । जैसे ज्ञानादि गुण सिद्ध परमात्मा में है, वैसे ही सूक्ष्म निगोद से लेकर समस्त जीवों में है। सिद्धों में वे गुण सम्पूर्ण रूप से प्रगट है, जबकि १४ जीव भेदों में सत्तागत हैं अर्थात् अप्रगट है । वे ६ लक्षण जीव (चैतन्य) के अतिरिक्त अन्य किसी में भी नहीं पाये जाते तथा जीव में अवश्यमेव रहते हैं । अतः इन्हें जीव का लक्षण या असाधारण धर्म कहा गया २२०) जीव के बाह्य लक्षण क्या हैं ? उत्तर : १० प्रकार के द्रव्य प्राण जीव के बाह्य लक्षण हैं । २२१) जीव के आंतरिक लक्षण क्या हैं ? उत्तर : जीव के आंतरिक लक्षण अनंत ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप तथा वीर्य है। इन्हें भावप्राण भी कहा जाता है। २२२) द्रव्य प्राण किसे कहते हैं ? उत्तर : जिसके द्वारा जीव जीवित रहता हैं, उसे द्रव्य प्राण कहते हैं । २२३) द्रव्य प्राण कितने व कौन-कौन से हैं ? उत्तर : द्रव्य प्राण १० हैं - पांच इन्द्रिय प्राण - १. स्पर्श, २. रस, ३. घ्राण, ४. चक्षु, ५. श्रोत्र - तीन बल प्राण - ६. मनोबल प्राण, ७. वचनबल प्राण, ८. कायबल प्राण ९. श्वासोच्छास प्राण १०. आयुष्य प्राण । २२४) प्राण तथा पर्याप्ति में क्या अंतर हैं ? उत्तर : पर्याप्ति प्राणों का कारण है तथा प्राण उसका कार्य हैं। २२५) पर्याप्ति तथा प्राण का काल कितना होता हैं ? उत्तर : पर्याप्ति का काल अन्तर्मुहूर्त का है, जबकि प्राण जीवन पर्यंत रहते हैं। ------ ---------- श्री नवतत्त्व प्रकरण १९५
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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