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________________ ४६ देववंदन जाय अर्थसदित. "" सहस के० ) मठ वर्ण होय, तथा नमोअ रिहंताणं श्रादिक (पय के० ) पद ते (नव के० ) नव होय, श्रने ( संपया के० ) संपदा तो ( अठ्ठ ho ) आठ होय, ( तब के ) तिहां ते आठ सं पदामांदे प्रथमनी “ सवपावप्पणासलो " सुधी नी जे ( सगसंपय के० ) सात संपदा बे, ते तो ( पयतुल्ला के ) पढ़ने तुल्य जाणवि एटले जे टला पद तेटली संपदा पण जालवी. तथा (अ छमी के०) आठमी संपदा तो "मंगलाएंणं च सवेसिं पढमं दवइ मंगलं एबे पदने एकठां कहीयें माटे ए (डुपया के०) बे पढ़नी जाणवी, तथा अन्य केटला एक आचार्य एम कहे बे, के "पढमं हवइ मंगलं " ए ( नवरकरश्रमी के० ) नव अक्षरनी श्रम्मी संपदा तथा " एसोपंच नमुक्कारो, सवपावप्पला सणो" ए (डुपय के०) बे पदनी ने शोल अक्ष रनी ( बही के) बही संपदा जालवी ॥ ३० ॥ वे प्रणिपात खमासमणना अक्षर तथा पद अने संपदा विवरी देखामे बे. पशिवाय करावं ठावीसं तहाय
SR No.022326
Book TitleChaityavandanadi Bhashya Trayam Balavbodh Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendrasuri
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages332
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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