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________________ हिंदी -भाव सहित ( शरीर से आत्मा को जुदा करना ) । २०९ स्का बीजभूत कारणशरीर । ऐसे इस संसारापन्न जीवमें तीन प्रकारोंकी कल्पना बैठती है । इन्ही तीन वस्तुओंके एकीभूत पिंडको संसारी मी या बद्ध आत्मा कहते हैं । ये तीनो भाग सदासे मिलकर एकीभूत 1 होरहे हैं। जबतक संसार है तबतक इन तीनोंका बंध नित्य लगा ही हुआ है। I जो केवल बहिरात्मा पूरे अज्ञानी हैं दे शरीरको ही अपना स्वरूप मानते हैं । जो कुछ आगे चलकर कार्यकारणका विचार करने गते हैं वे आत्माको संकल्प मात्र मानकर उसके कारण कर्मोंका वि धार करनेमें लगते हैं। वे भी वास्तवमें अज्ञानी ही हैं; क्योंकि, कमौके स्वरूपको उन्होंने चाहें कुछ समझलिया हो परंतु आत्माको संकल्प मात्रसे या शास्त्राज्ञामात्र से मानलिया है : वास्तव आत्माको स्वयं समझ नहीं पाये हैं । उन्हीको कहीं कहींपर द्रव्यलिंगीके नामसे पुकारते हैं। यहांतक के दोनो प्रकारके जीव अज्ञानी ही हैं, क्योंकि, उन्होंने वास्तव तत्त्वको नहीं पाया है। हाँ, सच्चा तत्त्वज्ञानी वह है कि जिसने शरीर व कर्म इन दोनो भागोंसे ज्ञानादि-गुणयुक्त अमूर्त आत्माको जुदा करनेका स्वरूप समझ लिया है । और शरीरका नाश करके अपनेको संसारसे मुक्त कर सकता है । जो इतना ज्ञानी बन चुका है वह किसी प्रकारका कष्ट न उठाकर सहज ही आत्माको छुटा सकता है । देखो: - करोतु न चिरं घोरं तपः क्लेशासहो भवान् । चित्तसाध्यान् कषायारीन् न जयेद्यत्तदज्ञता ॥ २१२ ॥ अर्थ:- तुम यदि क्लेशों से डरते हो तो भलें ही चिरकालपर्यंत घोर तपोंको मत करो। परंतु कषाय जीतने में तो कोई शारीरिक क्लेश नहीं है ? अपना मन वश किया कि कषाय वश हुए। इसलिये कषायशत्रुओं को तुम अवश्य जीतो । यदि कषाय भी तुमसे जीते न गये तो यह तुझारी पूरी मूर्खता है ।
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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