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________________ २०१ .. आत्मानुशासन. महीं ससा । इसने सदा भलाईके बदलेमें बुराई की । अपने भारम उसकारीके साथ इतनी सहानुभूति भी न दिखाना, उससे इतना विमुख रहना, अत्यंत नीचता है। इसकी कृतघ्नताको धिक्कार हो । भावार्थ:-जब कि यह इतना कृतघ्न है तो इससे कभी लाभ महोकर अपनेको सदा हानि ही होना संभव है। इसीलिये इसे त्याग देना व इससे उपेक्षा रखना ही ठीक है। भला, इसे त्यागै तो किस तरह ? रसादिरायो भागः स्याज ज्ञानावृत्त्यादिरन्वितः । ज्ञानादयस्तृतीयस्तु संसार्येवं त्रयात्मकः ॥२१०॥ मागत्रयमिदं नित्यमात्मानं बन्धवर्तिनम् । भागद्वयात् पृथक् कर्तुं यो जानाति स तत्त्ववित् ॥२११॥ अर्थः-यदि आत्माको शरीरसे जुदा करना है तो प्रथम शरीसंशय आत्मांशोंको पहिचानकर जुदा समझलो । ऐसा करनेसे आत्माको शरीरसे जुदा करलेनेमें कोई कठिनाई न पडेगी । अच्छा तो यों ही करिये । देखोः हाड, मांस वगैरह चीजोंका जो अपने साथ यह पिंड संलग्न हो रहा है, पहिला तो यह एक सर्वप्रसिद्ध विभाग है, जो कि सुगमतासे शरीरके नामसे जुदा समझा जासकता है। इसके बाद इसके सिवा दूसरा एक भाग संसारबद्ध जीवपर्यायका वह है कि जो शरीरका मूल कारण अत्यंत परोक्ष परंतु सबसे अधिक या वास्तवमें आत्माको सककर उसे मलिन व दुःखी बना रहा है । उसको कर्म कहते हैं । उसके ज्ञानावरणादि अनेक उत्तर भेद हैं । इस जीवपर्यायमें तीसरे विमागकी कल्पना करें तो वह स्वयं आप है। अर्थात्, जो ज्ञानादि गुणोंके द्वारा जुदा समझनेमें आता है वह ज्ञानादि गुणोंका पिंड आत्मा तीसरा विभाग है। इस प्रकार एक तो स्वयं आप और दूसरा प्रत्यसमोर शरीर भाग और तीसरा कर्म या लिंगशरीर अथवा सर्व संसा
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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