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________________ २०६ आत्मानुशासन. भावार्थ:-बाह्य तप करनेसे बहुतसे मनुष्य डरते हैं । वे समझते हैं कि बाह्य तप करना मानो भूख प्यास आदि अनेक दुःखोंको सहना है । परंतु ऐसा विचार उन लोगोंका होता है कि जो हाल ही में दीक्षित या धर्मकी तरफ सन्मुख हुए हों, किंतु इस तपश्चर्यामें प्रवेश करके वास्तविक आनंद नहीं उठा चुके हों। वास्तविक देखा जाय तो चिरपरिचित आत्मज्ञानी साधुओंको इस तपमें कभी खेद प्रतीत नहीं होता । शरीरका वैभव तपसे घटेगा परंतु आत्मीय सुखमें क्या बाधा आवेगी ? कुछ नहीं । प्रत्युत विषयोंसे मन उपरत होने के कारण आत्मानंद तो बढता जायगा । इसीलिये तपमें खेद माननेवाले वे ही होसकते हैं कि जो धर्ममें नवदीक्षित होंगे। उन्हींको आचार्य प्रकाः रांतरसे धर्ममें स्थिर करनेका प्रयत्न इस श्लोकमें दिखारहे हैं। तपश्चरण क्या व कषाय जीतना क्या ? वास्तविक एक ही बात है। . बहुतसे लोग कषायोंके जीतनेकी तरफ लक्ष्य न रखकर केवल कायक्लेशादि तप करनेमें लगनेको ही धर्म समझते हैं । उनको समझाना है कि भाई, कषायोंको अवश्य जीतो । यह भी इस श्लोकका तात्पर्य है। कषाय ही सर्वथा जीवका अपराधी है । देखो: हृदयसरसि यावनिर्मलेप्यत्यगाधे, घसति खलु कषायग्राहचक्रं समन्तात् । श्रयति गुणगणोयं तन्त्र तावद्विशङ्क, सयमशमविशेषस्तान् विजेतुं यतस्व ॥ २१३ ॥ अर्थः-अरे जीव, तेरा हृदयसरोवर अत्यंत निर्मल है । तो भी उसके अत्यंत गहरे भागमें कषायरूप मगर जबतक रहरहे हैं तब. तक उस सरोवरके पास पवित्र मोक्षके साधन ज्ञानादि गुण निःशंक १. समदमयमशेषैः' ऐसा पाठ पं. टोडरमलजीने माना है पर वह ठीक नहीं है। संस्कृत टीका भी यही कहती है ।
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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