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________________ आत्मानुशासन. सुधार होना संभव है। जो शिष्य हैं वे तो शिष्य ही हैं। वे यदि अपनी सँभाल आप न करें तो कुछ आश्चर्य नहीं है। पर जो गुरुका अधिकार पाकर भी शिष्योंका उद्धार नहीं करता वह गुरु अति निन्द्य है, शिष्योंके सारे पातकोंका वही भागी है। और जो दुष्ट होकर भी किसीके दोष प्रगट करता है वह उसका परम कल्याण-कर्ता है । उसके प्रगट करनेसे विद्यमान दोष सुधारनेकी चिन्ता होने लगती है व आगामी दोष न करनेकी समझ होती है । इसलिये दोष प्रगट करनेवाले दुष्टसे अधिक और कौन उपकारी गुरु होसकता है ? संसारमें कठोर वाणी ही क्यों न हो पर जिससे हित प्राप्त होसकता है वह अति दुर्लभ है। देखोः लोकद्वयहितं वक्तुं श्रोतुं च सुलभाः पुरा।। दुर्लभाः कर्तुमद्यत्वे वक्तुं श्रोतुं च दुर्लभाः ॥१४३॥ अर्थ:-जिससे दोनो लोकोंका कल्याण होता हो ऐसा उपदेश कहनेवाले भी पहले तो बहुत थे व सुननेवाले भी बहुत थे। परंतु तदनुसार आत्मकल्याणमें लगनेवाले तब भी विरले ही थे। पर आज यह बात है कि कल्याण करलेनेवालोंको दूर रखिये; कहने सुननेवाले भी अति विरल हैं । सुननेवालोंमें तो सुनने तककी रुचि नहीं है और कहनेवाले उनका मुख देखकर बोलनेवाले हैं । इसीलिये आजकल दोनोंकी कमी है। यथार्थ उपदेश कठोर हो तो भी ग्राह्य है । देखोःगुणागुणविवेकिभिर्विहितमप्यलं दूषणं, भवेत् सदुपदेशवन्मतिमतामऽतिप्रीतये । कृतं किमपि धाष्टर्यतः स्तवनमप्यतीर्थोषितै,ने तोषयति तन्मनांसि खलु कष्टमज्ञानता ॥१४४॥ अर्थः-गुणदोषोंकी जाच करनेवाले गुरु या हितेच्छु जनोंने जाचकर यदि अपनेमें दोष ही दोष ठहराये हों तो भी समझदार मनुप्योंको उतना आनंद होना चाहिये जितना कि सदुपदेश सुननेपर होता
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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