SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिंदी-भाव सहित (गुरुका कर्तव्य )। १४५ जब शिष्योंकी प्रवृत्ति सुगमतासे सुधरती नहीं दीखती है तब उनके गुरु अति कठोर शासन करके भी दोषोंको दूर करते हैं। थोडा . भी दोष जिन्हें सहन नहीं होता वे ही शिष्योंका यथार्थ हित कर सकते हैं । उस समय यदि कठोर शासनकी आवश्यकता दीखती है तो कठोर शासन अवश्य करते हैं । उस शासनको सुनना व धारण करना उन शिष्योंको कदाचित् सहन नहीं होता कि जो आत्मकल्याणके पूर्ण उत्सुक नहीं हैं। इसीलिये वे कभी कभी दोषोंको छिपाते हैं व कहे हुए यथोचित प्रायश्चित्तको भी स्वीकार नहीं करते हैं। परंतु अपना कल्याण सिद्ध करनेकी उत्कट वांछा रखनेवाले शिष्योंका मन गुरुके कठोरसे कठोर शासनको सुनकर व पाकर भी अधिक प्रसन्न ही होता है। ठीक ही है, दूसरोंको सूर्यके किरण चाहे कितने ही खरतर लगते हों पर कमल उन्हें पाकर प्रफुल्लित ही होते हैं । जो ऐसे शिष्य हैं वे ही अंतमें अपना कल्याण साध सकते हैं। गुरुको भी चाहिये कि वह शिष्यों के दोषोंको छिपावै नहीं । देखो: दोषान् कांश्चन तान्प्रवर्तकतया प्रच्छाद्य गच्छत्ययं, सार्धं तैः सहसा म्रियेद्यदि गुरुः पश्चात् करोत्येष किम् । तस्मान्मे न गुरुगुरुगुरुतरान् कृत्त्वा लघूश्च स्फुट, ब्रूते यः सततं समीक्ष्य निपुणं सोयं खलः सद्गुरुः ॥१४२॥ अर्थः-जो गुरु शिष्योंके चारित्रमें लगते हुए अनेक दोषोंको देखकर भी उनकी तरफ दुर्लक्ष्य करता है व महत्त्वके न समझकर उन्हें छिपाता चलता है वह गुरु हमारा गुरु नहीं है । वे दोष तो साफ न होपाये हों और इतनेमें ही यदि शिष्यका मरण होगया तो वह गुरु पीछेसे उस शिष्यका सुधार कैसे करेगा ? इसलिये वह गुरु किसी कामका नहीं है । जो दुष्ट विचारसे ही क्यों न हो, पर बड़ी सावधानीसे देखता हुआ छोटे छोटे दोषोंको भी बडे बडे बनाकर सदा प्रकाशित करता है वह दुष्ट जन भी हमारा श्रेष्ठ गुरु है। क्योंकि उससे हमारा १९
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy