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________________ हिंदी-भाव सहित (गुरुका कर्तव्य )। १४७ है। क्योंकि, सदुपदेश सुनकर जैसा कल्याण होसकता है वैसा ही अपने सच्चे दोष सुननेपर भी कल्याण होसकता है । दोषोंको विना छोडे कल्याण होना असंभव है । और दोष तभी छोडे जासकते हैं जब कि उन्हें जान लिया जाय । अपने दोषोंको आप जानलेना कठिन बात है। इसलिये जो कोई दूसरा मनुष्य अपने दोष बतादे तो अच्छी ही बात है। उसे विद्वान् मनुष्य बुरा क्यों मानने लगा ? हाँ, कुछ मतलव साधनेवाले अज्ञानी मनुष्य यदि स्वार्थवश स्तुति भी करते हों तो वह स्तुति उस बुद्धिमानको न रुचेगी। क्योंकि, वह स्तुति स्वार्थवश झूठी ही कीगई है। और इसीलिये वह एक उनकी घिठाई है या अति साहस है; जो कि गुण न होते हुए भी वे स्तुति करते हैं। उसको सुनकर यदि संतोष व आनंद मानलिया जाय तो कल्याण होना कठिन है । दोषोंको समझकर छोडनेसे कल्याण होता है, गुणोंमें वृद्धि होती है । पर अपनेमें गुण न होते हुए भी यदि किसी खुशामदीके बोलनेपरसे गुण मानकर संतोष करलिया जाय तो अपना कल्याण व अपनेमें गुणोंकी वृद्धि कैसे हो सकती है ? इसीलिये अज्ञानी गरजू मनुष्योंकी स्तुतिसे बुद्धिमान मनुष्य प्रसन्न कभी नहीं होते । यदि कोई अज्ञानी मनुष्य इस मतलबको न समझता हो तो वह अवश्य स्तुति करनेवालोंपर प्रसन्न होगा और दोष दिखानेवालोंपर अप्रसन्न होगा। पर यह लाचारी है। उसके अज्ञानकेलिये हम क्या करें ? अच्छा तो ज्ञानीको करना क्या चाहिये । त्यक्तहेत्वन्तरापेक्षौ गुणदोषनिबन्धनौ । यस्यादानपरित्यागौ स एव विदुषां वरः॥ १४५ ॥ अर्थ:-जिस मनुष्यकी किसी कार्यमें प्रवृत्ति फक्त गुण-दोष देखकर होती हो, दूसरा स्तुतिनिन्दादि सुननेका कुछ भी प्रयोजन उस प्रवृत्ति-निवृत्तिमें न हो, वही श्रेष्ठ विद्वान मनुष्य है।
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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