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________________ आत्मानुशासन. शित करती है। पर साथ ही तेरे दोषको भी प्रकाशित करती है । यदि चांदनी न होती तो तेरा दोष किसीके भी नजर न पडता । इस उज्ज्वल प्रकाशके बीच छोटेसे दोषको भी देखकर लोग तुझै दोषी कहते हैं। इससे तो तू यदि सारा मलिन ही होता तो अच्छा था । गुणों के वीच पडा हुआ दोष सभीकी दृष्टि पडता है। यदि केतु या राहुकी भांत तू पूरा मलिन होता तो किसीके भी देखनेमें न आता । तब तुझै कौन बुरा कहता था कि यह लांछन युक्त है । क्या राहु या केतुको भी लोग कभी काला, दोषी, मलिन इत्यादि कहते हैं ? नहीं। भावार्थः-चंद्रके समान उज्वल चारित्र व ज्ञान गुणको जगमें प्रकाशित करके यदि कोई मलिन करले तो उसे सभी जन निन्द्य कहने लगते हैं। सभीकी दृष्टि उज्ज्वल गुणोंके वीच दीखनेवाले दोषपर पडती है । इससे भी अधिक मलिनताको धारण करनेवाला गृहस्थ किसीको भी खटकता नहीं है । इसलिये दोषों के साथ यदि गुण हों तो दोष जग जाहिर हो जाते हैं और इसीलिये वे गुण उस मनुष्यके दोषदर्शक होनेसे न होनेकी अपेक्षा भी अधिक अनिष्ट समझना चाहिये । तब ? विकाशयन्ति भव्यस्य मनोमुकुलमंशवः । खेरिवारविन्दस्य कठोराश्च गुरूक्तयः ॥ १४१ ॥ अर्थः-प्रथम तो अपने चारित्रमें दोष लगाना ही नहीं चाहिये। कदाचित् भी मेरे व्रतोंमें दोष न लगै यह भावना सदा मनमें रहनी चाहिये । और इसीके लिये गुरुओंके अधीन रहकर अपना कयाण करना चाहिये जिससे कि दोषोंका संशोधन होता रहै । गुरुओंका यही काम है कि वे शिष्योंके चारित्रको विगडने नहीं देते । जो शिष्य अपना कल्याण करना चाहते हैं बे गुरुओंके दिखाए हुए मार्गको छोडते नहीं हैं। १ संस्कृत टीकामें इसे १४२ वें नंबरपर कहा है व १४२ वें श्लोकको यहां ( १४१ वें की जगह ) कहा है।
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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