SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : ६ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : करने में पृथ्वी सदृश श्री जिनभद्रगणि महाराज का कहना हैं कि : तं मंगलमाईए, मज्झे पजंतए य सत्थस्स । पढमं सत्थत्थाविग्ध - पारं गमनाय निद्दिहं ॥१॥ इत्यादि भावार्थ:- शास्त्र के आरम्भ, मध्य एवं अन्त में मंगलोच्चारण करना चाहिये । उस में प्रथम मंगल शास्त्र और उसके अर्थका निर्विन समाप्त होने के लिये करना कहा गया है । इत्यादि । इसी प्रकार शिष्ट जनोंद्वारा भी मंगलोच्चारण का आचरण होना पाया गया है । शिष्ट पुरुष किन को कहते हैं ? शास्त्ररूप सागर को पार करने के लिये जो शुभ व्यापार में प्रवृत्त होते हैं उनको शिष्ट पुरुष कहते हैं । कहा भी है कि:शिष्टानामयमाचारो, यत्ते संत्यज्य दूषणम् । निरन्तरं प्रवर्तन्ते, शुभ एव प्रयोजने ॥ १ ॥ भावार्थ - शिष्टजन का आचरण होता है कि वे दूषणों का परित्याग कर निरन्तर शुभ कार्य में ही प्रवृत होते हैं । अपितु बुद्धिमान् पुरुषों का कोई भी कार्य निष्प्रयोजन नही होता क्यों कि बिना प्रयोजन के किया हुआ कार्य तो मार्ग में पडी हुई कांटेवाली हती के उपमर्दन करने तुल्य
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy