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________________ व्याख्यान १ : श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि । अश्रेयसि प्रवृत्तानां, क्वापि यान्ति विनायकाः॥१॥ भावार्थ:- महापुरुषों को भी श्रेष्ठ कार्यों में अनेकों विघ्नों का सामना करना पड़ता है किन्तु अशुभ कार्यों में प्रवृत मनुष्यों के विघ्न दूर भाग जाते हैं । • इसलिये ग्रन्थ के आरम्भ में विघ्नसमूह की शान्ति के लिये उपरोक्त मंगल शास्त्र के आरम्भ, मध्य और अन्त में उच्चारण करना आवश्यक समझा गया हैं । यहां यह प्रश्न होता है कि " स्याद्वाद धर्म के वर्णनरूप यह ग्रन्थ होने से तो यह समस्त ग्रन्थ ही मंगलरूप है फिर यहां शास्त्र के आरम्भ, मध्य एवं अन्त में मंगलोच्चारण करने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि इस में मंगलोच्चारण करने का कोई प्रयोजन नहीं रहता " इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है। कि इस में जो मंगल नहीं करने के लिये कारण बतलाया गया हैं वह असिद्ध है क्यों कि शिष्यजन निर्विघ्नतया ग्रन्थ पूर्ण कर सके ( अभ्यास कर सके ) इस के लिये आरंभ में उसको हृदयंगम कर सके इसके लिये मध्य में, और वही ग्रन्थ शिष्य प्रशिष्यादिक परंपरा से करके सब को उपकारी हो सके इस के लिये अन्त में मंगलोच्चारण की आवश्यकता होती है । इसी विषय में प्रशंसनीय भाष्यरूपी धान्य उत्पन्न
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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