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________________ व्याख्यान १ निष्फल होता है अतः इस प्रकार की शंका के निवारणार्थ बुद्धिमान् पुरुषों को इस ग्रन्थ के पठनपाठन में प्रवृत करने तथा उपद्रवों का नाश करने के निमित्त ग्रन्थकार इष्ट देवता को नमस्कार करने के लिये सम्बन्ध, अभिधेय और प्रयोजन के मूचक श्लोक का कथन करते हैं:ऐन्द्रश्रेणिनतं शान्ति-नाथमतिशयान्वितम् । नत्वोपदेशसद्माख्यं, ग्रन्थं वक्ष्ये प्रबोधदम् ॥१॥ शब्दार्थः-इन्द्रसमूह से वंदित एवं अतिशयों से युक्त शान्तिनाथ स्वामी को नमस्कार करके प्रबोधात्मक उपदेशप्रासाद नामक ग्रन्थ का वर्णन करता हूँ। विवेचन:-" उपदेश" अर्थात् हमेशा व्याख्यान देने योग्य ऐसा तीन सो एकसठ दृष्टान्तयुक्त " सम" अर्थात् स्थान (महल-प्रासाद) नामक ग्रन्थ को प्रारम्भ किया जाता है। वह ग्रन्थ कैसा है ? "प्रबोधदम् " अर्थात् सम्यग् ज्ञान को देनेवाला-उत्पन्न करनेवाला उस ग्रन्थ को कैसे आरम्भ किया गया ? नमस्कारपूर्वक अर्थात् मन, वचन और काया से नमस्कार करके । किसको नमस्कार कर ? शान्तिनाथ को-अचिरा माताके पुत्र-विश्वसेन के पुत्र सोलवे तीर्थंकर को। वे शान्तिनाथ प्रभु कैसे है ? चोसठ इन्द्र, बारह चक्रवर्ती, नो वासुदेव, नो प्रतिवासुदेव, नो बलदेव तथा गणधर, विद्याधर और मृगेन्द्र आदि के समूहद्वारा
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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