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________________ ५४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित__ आगैं सूईके दृष्टान्तका दार्टान्त कहैं हैं;गाथा-पुरिसो विजो ससुत्तोण विणासइ सो गओ वि संसारे । सच्चेयणपञ्चक्खं णासदितं सो अदिस्समाणो वि ॥४॥ संस्कृत-पुरुषोऽपि यः ससूत्रःन विनश्यति स गतोऽपि संसारे सच्चेतनप्रत्यक्षेण नाशयति तं सः अदृश्यमानोऽपि॥४॥ अर्थ—जैसैं सूत्रसहित सूई नष्ट नहीं होय तैसैं सो पुरुष भी संसारमैं गत होय रह्या है अपना रूप आपके दृष्टिगोचर नाही है तौऊ सूत्रसहित होय सूत्रका ज्ञाता होय तो ताकै आत्मा सत्तारूप चैतन्य चमत्कारमयी स्वसंवेदनकरि प्रत्यक्ष अनुभवमैं आवै है यारौं गत नाही है नष्ट नहीं भया है, सो जिस संसारमैं गत है तिस संसारका नाश करै है। भावार्थ- यद्यपि आत्मा इन्द्रियगोचर नाही हे तौऊ सूत्रके ज्ञाताकै स्वसंवेदन प्रत्यक्ष करि अनुभव गोचर है सो सूत्रका ज्ञाता संसारका नाश करै है आप प्रकट होय है याः सूईका दृष्टांत युक्त है ॥ ४ ॥ ___ आरौं सूत्रमैं अर्थ कहा है सो कहैं हैं,गाथों-सूत्तत्थं जिणभणियं जीवाजीवादिबहुविहं अत्थं । हेयाहेयं चःतहा जो जाणइ सो हु सद्दिट्टी ॥ ५ ॥ संस्कृत-सूत्रार्थ जिनभणितं जीवाजीवादिबहुविधमर्थम् । हेयाहेयं च तथा यो जानति स हि सदृष्टिः ॥५॥ अर्थ-सूत्रका अर्थ है सो जिन सर्वज्ञ देव करि कह्या है बहुरि सूत्रविधैं अर्थ है सो जीव अजीव आदि बहुत प्रकार है तथा हेय कहिये त्यागने योग्य पुद्गलादिक अर अहेय कहिये त्यागने योग्य नाही ऐसा आत्मा सो याकू जानैं सो प्रगट सम्यग्दृष्टी है ।
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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