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इन दोनों गाथाओंके पढ़नेसे पाठकोंको अच्छी तरह विदित होगा कि ये बोध पाहुडकी गाथायें श्रुतकेवली भद्रबाहुके शिष्यकी कृति है। और ये अष्ट पाहुड ग्रंथ निर्विवाद अवस्थामें कुंदकुंदस्वामीजीके बनाये हुए हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि स्वामी कुंदकुंद श्रुतकेवलीभद्रबाहुके शिष्य थे ऐसी अवस्थामें कुंदकुंदका समय विक्रमसे बहुत पहलेका पड़ता है।
परंतु इस गाथाका अर्थ मान्यवर श्री श्रुतसागर सूरिने दूसरेही प्रकार किया है और उसीके आधार पर जयपुरनिवासी पं. जयचंद्रजी छावड़ाने भी किया है इससे हम पूर्ण रूपमें यह निश्चय नहीं लिख सकते कि स्वामीजीका समय विक्रम शताब्दिसे पहलेका होगा क्योंकि श्रुतसागर सूरिने जो अर्थ लिखा है वह किसी विशेष पट्टावली वगैरःके आधारसे लिखा होगा दुसरे वे एक प्रमाणीक तथा प्रतिभाशाली विद्वान् थे इस वजह उनके अर्थको अमान्य ठहराया जाय यह इस तुच्छ लेखकी शक्तिसे बाह्य है । फिर भी मुझे उस गाथाका जो अर्थ सूझा है वह स्पष्टतासे ऊपर लिखदिया है विद्वान् पाठक इसका समुचित विचार कर स्वामीजीके समय निर्णयकी गहरी गवेषणामें उतरकर समाजकी एक खास त्रुटिको पूरा करेंगे।
भगवत्कुन्दकुन्दस्वामीके बनाये हुये ग्रंथोंमें समयसार १ प्रवचनसार २ पंचास्तिकाय ३ नियमसार ४ रयणसार ५ अष्टपाहुड ६ द्वादशानुप्रेक्षा ७ ये सात ग्रंथ देखनेमें आते हैं और ये सभी ग्रंथ छप भी गये हैं । अष्टपाहुडमें षट्पाहुडके ऊपर संस्कृत टीका श्री श्रुतसागरजीसूरिकी है जोकि बहुतही मनोज्ञ है जिसमें ग्रंथका भाव बहुतही अच्छी तरहसे दर्शित किया है और वह माणिकचंद्र दिगम्बर जैन ग्रंथमालाके षट् प्राभृतादिसंग्रहमें प्रकाशित हो चुकी है। इस अष्टपाहुडग्रंथके ऊपर पं० जयचंद्रजी छावड़ा जयपुर निवासीकृत दूसरी देशभाषामय वचनिका है जिसमें कि षट्पाहुड तक श्री श्रुतसागरसूरिकी टीकाका आश्रय है
और दूसरे पाहुडों की उनने खुद लिखी है जिसका कि वर्णन उन्होंने खुद अपनी प्रशस्तिमें लिखा है और वह प्रशस्ति इस ग्रंथके अंतमें उनकी ज्यों की त्यौं लगादी है उससे पाठक विशेषज्ञान इस विषयमें कर सकेंगे। पंडित जयचंद्रजी छावड़ाके विषयमें हम-इस संस्थासे प्रकाशित प्रमेय रत्नमाला तथा आप्तमीमांसाकी भूमिकामें पहले लिखचुके हैं वहांसे पाठक उनके संबंधका कुछ विशेष परिचय कर सकते हैं । आप १९०० शताब्दीके एक प्रतिभाशाली विद्वान् थे