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________________ १२ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितपर्यायका स्वभाव विनाशीक मानें है, तातैं भय होतें भी निर्भय ही कहिये । भय होते ताका इलाज भागनां इत्यादि करै है, तहां वर्तमानकी पीडा नहीं सही जाय तारौं इलाज करै है यह निबलाईका दोष है। ऐसैं संदेह अर भयरहित सम्यग्दृष्टी होय ताकै निःशंकित अंग होय है ॥ १॥ ___ बहुरि कांक्षा नाम भोगनिकी इच्छा अभिलाषका है । तहां पूर्व किये भोग तिनिकी वांछा तथा तिनि भोगनिकी मुख्य क्रिया विर्षे वांछा तथा कर्म अर कर्मके फलविर्षे वांछा तथा मिथ्यादृष्टीनिकै भोगनिकी प्राप्ति देखि तिनिकू अपनें मनमैं भला जाननां, अथवा इंद्रियनिकू नहीं रुचै ऐसे विषयनिवि उद्वेग होनां; ये भोगाभिलाषके चिह्न हैं। सो यह भोगाभिलाष मिथ्यात्वकर्मके उदयतें होय है । सो यह जाकै नहीं होय सो निःकांक्षित अंगयुक्त सम्यग्दृष्टी होय है । यह सम्यग्दृष्टी यद्यपि शुभक्रिया व्रतादिक आचरण करै है ताका फल शुभकर्मबंध है ताकू भी नांही वांछ है व्रतादिकळू स्वरूपके साधक जानि आचरै है कर्मके फलकी वांछा नाही करै है । ऐसें नि:कांक्षित अंग है ॥ २ ॥ ___ बहुरि आपविौं अपने गुणकी महंतताकी बुद्धिकरि आपकू श्रेष्ठ मांनि परविर्षे हीनताकी बुद्धि होय ताकू विचिकित्सा कहिये, यह जाकै नहीं होय सो निर्विचिकित्सा अंगयुक्त सम्यदृष्टी होय है । याके चिह्न ऐसैं-जो कोई पुरुष पापके उदयतें दुःखी होय, असाताके उदयतें ग्लानियुक्त शरीर होय ताविर्षे ग्लानिबुद्धि नहीं करै । ऐसी बुद्धि नहीं करै-जो मैं संपदावान हूं सुन्दरशरीरवान हूं, यह दीन रांक मेरी बराबरी नाही करि सकै । उलटा ऐसैं विचारै जो प्राणीनिकै कर्मउदयतें विचित्र अनेक अवस्था होय है, मेरे कर्मका उदय ऐसा आवै तब मैं भी ऐसा ही होजाऊं । ऐसें विचारतें निर्विचिकित्सा अंग होय है ॥३॥
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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