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________________ १० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित नहीं उपजै । अर ऐसैं विचारै जो मेरा बुरा करनेवाला मेरा परिणामकार मैं वांध्याथा जो कर्म, सो है, अन्य तौ निमित्तमात्र हैं, ऐसी बुद्धि आपकै उपजै, ऐसे मंदकषाय होय । अर अनंतानुबंधीविना अन्य चारित्रमोहकी प्रकृतिनिके उदयतें आरंभादिक क्रियामैं हिंसादिक होय है तिनिकू भी भला नहीं जानैं है यारौं तिससैं प्रशमका अभाव नहीं कहिए । बहुरि धर्मविपैं अर धर्मका फलविौं परम उत्साह होय सो संवेग है, तथा साधर्मीनितें अनुराग तथा परमेष्ठीनिविर्षे प्रीति सो भी संवेगही है । अर इस धर्मवि अर धर्मका फलविर्षे अनुरागकू अभिलाष न कहनां जाते अभिलाष तौ इन्द्रियनिके विषयनिविर्षे चाह होय ताकू कहिये है, अपनां स्वरूपकी प्राप्तिविर्षे अनुरागकू अभिलाष नहीं कहिये । बहुरि इस संवेगहीमैं निर्वेद भी भया जानना जातै अपने स्वरूपरूप धर्मकी प्राप्तिवि अनुराग भया तब अन्यत्र सर्वही अभिलाषका त्याग भया सर्व परद्रव्यानसू वैराग्य भया, सो ही निर्वेद है । बहुरि सर्व प्राणीनिविर्षे उपकारकी बुद्धि तथा मैत्रीभाव सो अनुकंपा है तथा माध्यस्थ्यभाव होय तारौं सम्यग्दृष्टिकैं शल्य नांही है काहूसू वैरभाव न होय है, सुख दुःख मरण जीवन आपकै परकरि अर परकै आपकरि नांही श्रद्धे हैं। बहुरि जो परविर्षे अनुकंपा है सो आपहीविर्षे अनुकंपा है जाते परका बुरा करनां विचारै तब अपनें कषायभावतें अपनां बुरा स्वयमेव भया, परका बुरा न बिचारै तब अपनें कषायभाव न भये तब अपनी अनुकंपाही भई । बहुरि जीव आदि पदार्थनिविर्षे अस्तित्वभाव सो आस्तिक्यभाव है सो जीव आदिका स्वरूप सर्वज्ञके आगमतें जानि तिनिविर्षे ऐसी बुद्धि होय जो ये जैसैं सर्वज्ञ भाषे तैसैंही हैं अन्यथा नांही है, ऐसा अस्तिक्यभाव होय है । ऐसें ये सम्यक्त्वके बाह्य चिह्न हैं। बहुरि सम्यक्त्वके आठ गुण हैं;-संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्दा, उपशम, भाक्ति, वात्सल्य, अनुकंपा । सो ये प्रशमादिक च्यार हीमैं
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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