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________________ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित-- ही धर्म है। एसैं शुद्ध द्रव्यार्थिक रूप निश्चय नय करि साध्या हुवा धर्म एकही प्रकार है । बहुरि व्यवहारनय है सो पर्यायाश्रित है सो यह भेदरूप है, सो याकरि विचारिए तब जीवके पर्यायरूप परिणाम अनेक प्रकार हैं तातें धर्म भी अनेक प्रकार करि वर्णन किया है। तहां एकदेशकू प्रयोजनके वश” सर्वदेश करि कहिए सो व्यवहार है । बहुरि अन्य वस्तुवि अन्यका आरोपण अन्यके निमित्त तथा प्रयोजनके वशतें करिये सो भी व्यवहार है । तहां वस्तुस्वभाव कहनेमैं तौ जे निर्विकार चेत नाके शुद्ध परिणामके साधकरूप मंदकषायरूप शुद्ध परिणाम हैं तथा बाह्य क्रिया हैं ते सर्वही व्यवहारधर्मकरि कहिये है। वहीर तैसैंही रत्नत्रय कहनेंतें स्वरूपके भेद दर्शन ज्ञान चारित्र तथा तिनिके कारण वाह्यक्रियादिक हैं ते सर्वही व्यवहारधर्मकरि कहिए है । तथा तैसैंही जीवनिकी दया कहनेतें क्रोधादि कषाय मंद होनेंतें अपने वा परके मरण दुःख क्लेश आदि न करना, तिसके साधक बाह्यक्रियादिक ते सर्वही धर्मकरि कहिए हैं। ऐसे निश्चय व्यवहार नय करि साध्या हुवा जिनमतमैं धर्म कहिए है। तहां एक स्वरूप अनेकस्वरूप कहने” स्याद्वादकरि विरोध नाही आवै है, कथंचित् विवक्षारौं सर्व प्रमाणसिद्ध है । बहुरि ऐसे धर्मका मूल दर्शन कह्या सो ऐसे धर्मका श्रद्धा प्रतीति रुचि सहित आचरण करना सो ही दर्शन है, यह धर्मकी मूर्ति है, याहीकू मत कहिए सो यह ही धर्मका मूल है । बहुरि ऐसे धर्मकी पहलै श्रद्धा प्रतीति रुचि न होय तौ धर्मका आचरण भी न होय, जैसे वृक्षकै मूल विना स्कंधादिक न होय तैसैं सो दर्शनकू धर्मका मूल कहना युक्त है । सो ऐसे दर्शनका जैसैं सिद्धांतनिमैं वर्णन है तैसैं किळूक लिखिए है। - तहां अन्तरंग सम्यग्दर्शन है सो तौ जीवका भाव है सो निश्चयकरि उपाधि” रहित शुद्धजीवका साक्षात् अनुभव होनां ऐसा एक
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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