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________________ ४१२ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित तब जानिये याकै श्रद्धा भई, बहुरि सम्यक्त्व होय तब विषयनितें विरक्त होय ही होय जो विरक्त न होय तौ संसार मोक्षका स्वरूप कहा जान्यां ? ऐसैं सम्यक्त्व शील भये ज्ञान सम्यक्ज्ञान नाम पात्र है। ऐसैं इस सम्यक्त्व शीलके संबंध तैं ज्ञानकी तथा शास्त्रकी बडाई है। ऐसे यह जिनागमहै सो संसार” निवृत्तिकरि मोक्षप्राप्त करनेवाला है, सो जयवंत होहु । बहुरि यहु सम्यक्त्वसहित ज्ञानकी महिमा है सो ही अंतमंगल जाननां ॥ ४०॥ ऐसें श्रीकुन्दकुन्द आचार्यकृत शीलपाहुड ग्रंथ समाप्त भया । याका संक्षेप तौ कहते आये जो-शील नाम स्वभावका है सो आत्माका स्वभाव शुद्ध ज्ञान दर्शनमयी चेतनास्वरूप है सो अनादिकर्मके संयोगतै विभावरूप परिणमैं है ताके विशेष मिथ्यात्व कषाय आदि अनेक हैं तिनिकू राग द्वेष मोह भी कहिये तिनिके भेद संक्षेपकरि चौरासीलाख किये हैं, विस्तारकरि असंख्यात अनंत होय हैं तिनि• कुशील कहिये, तिनिका अभावरूप संक्षेपकरि चौरासीलाख उत्तरगण हैं तिनिळू शील कहैं हैं; यह तो सामान्य परद्रव्यके संबंधकी अपेक्षा शील कुशीलका अर्थ है। बहुरि प्रसिद्ध व्यवहारकी अपेक्षा स्त्रीके संगकी अपेक्षा कुशीलके अठारह हजार भेद कहे हैं तिनिका अभाव ते शीलके अठरा हजार भेद हैं, तिनिकू जिन आगम तैं जांनि पालनें । लोकमैं भी शीलकी महिमा प्रसिद्ध है जे पालै हैं ते स्वर्ग मोक्षके सुख पावै हैं तिनिळू हमारा नमस्कार है ते हमारे भी शीलकी प्राप्ति करो, यह प्रार्थना है । छप्पय । आन वस्तुके संग राचि जिनभाव भंग करि, वरतै ताहि कुशीलभाव भाखे कुरंग धरि ।
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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