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अष्टपाहुडमें शीलपाहुडकी भाषावचीनका। ४११ प्राप्त होय, तहां सागरांपर्यंत सुख भोगि तहांतें चय मनुष्य होय आराधनांकू संपूर्ण करि मोक्ष प्राप्त होय है, ऐसें जाननां, यह जिनवचनका अर शीलका माहात्म्य है ॥ ३९ ॥ ___ आनें ग्रंथकू पूर्ण करैं हैं तहां ऐसैं कहैं हैं जो-ज्ञान” सर्व सिद्धि है यह सर्वजनप्रसिद्ध है सो ज्ञान तौ ऐसा होय ताकू कहिये है;गाथा-अरहंते सुहभत्ती सम्मत्तं दंसणेण सुविसुद्धं ।
सीलं विसयविरागो णाणं पुण केरिसं भणियं ॥४०॥ संस्कृत-अर्हति शुभभक्तिः सम्यक्त्वं दर्शनेन सुविशुद्धं ।
शीलं विषयविरागः ज्ञानं पुनः कीदृशं भणितं ॥४०॥ अर्थ-अरहंतविर्षे भली भक्ति है सो तौ सम्यक्त्व है, सो कैसा है-सम्यग्दर्शनकरि विशुद्धहै तत्वार्थनिका निश्चय व्यवहारस्वरूप श्रद्धान अर बाह्य जिनमुद्रा नग्न दिगंबररूपका धारण तथा ताका श्रद्धान ऐसा दर्शनकरि विशुद्ध अतीचार रहित निर्मल है ऐसा तो अरहंतभक्तिरूप सम्यक्त्व है, बहुरि शील है सो विषयनितें विरक्त होना है बहुरि ज्ञान भी यह ही है और यात्रै न्यारा ज्ञान कैसा कया है ? सम्यक्त्व शील विना तौ ज्ञान मिथ्याज्ञानरूप अज्ञान है ॥ ___ भावार्थ-यह सर्व मतनिमैं प्रसिद्ध है जो ज्ञानतें सर्व सिद्धि है अर ज्ञान होय है सो शास्त्रनितें होय है । तहां आचार्य कहै है जो हम तौ ताकू ज्ञान कहैं हैं जो सम्यक्त्व अर शील सहित होय, यह जिनागममैं कही है, यातें न्यारा ज्ञान कैसा है याते न्यारा ज्ञान• तौ हम ज्ञान कहैं नाही, इनि विना तौ अज्ञानहीं है, अर सम्यक्त्व शील होय सो जिनागमतें होय । तहां जाकरि सम्यक्त्व शील भये तिसकी भक्ति न होय तौ सम्यक्त्व कैंसैं कहिये, जाके वचन" यह पाइये ताकी भक्ति होय