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________________ अष्टपाहुडमें शीलपाहुडकी भाषावचनिका। ४०७ भावार्थ-इहां सम्यक्त्व आदि पंच आचारतौ अग्निस्थानीय हैं अर आत्माका शुद्ध स्वभाव है ताकू शील कहिये सो यह आत्माका स्वभाव पवनस्थानीय है सो पंच आचार रूप पवनका सहाय पाय पुरातन कर्मवंधकू दग्धकरि आत्माकू शुद्ध करें ऐसैं शीलही प्रधान है। पांच आचारमैं चारित्र कह्या है अर इहां सम्यक्त्व कहनेमैं चारित्रही जाननां विरोध न जाननां ॥ ३४ ॥ ____ आनें कहै है जो ऐसैं अष्ट कर्मनिकू जिनिनैं दग्ध किये ते सिद्ध भये हैं;गाथा-णिद्दढअहकम्मा विसयविरत्ता जिदिदिया धीरा । तवविणयसीलसहिदा सिद्धा सिद्धिं गदिं पत्ता ॥३५॥ संस्कृत-निर्दग्धाष्टकर्माणः विषयविरक्ता जितेंद्रिया धीराः । तपोविनयशीलसहिताः सिद्धाः सिद्धिं गतिं प्राप्ताः॥३५॥ ___ अर्थ-जो पुरुष जीते हैं इंद्रिय जिनूनैं याहीतै विषयनितें विरक्त भये हैं, बहुरि धीर हैं परीषहादि उपसर्ग आये चिगै नांही हैं, बहुरि तप विनय शील इनिकरि सहित हैं ते दूरि किये हैं अष्ट कर्म जिनूं. ऐसे होय सिद्धिगति जो मोक्ष ताकू प्राप्त भये हैं, ते सिद्ध ऐसा नाम कहा है ॥ ___ भावार्थ--इहां भी जितेंद्रिय विषयविरक्तता ये विशेषण शीलहीकी प्रधानता दिखाबें हैं ॥ ३५॥ ___ आगैं कहै है जो लावण्य अर शील युक्त है सो मुनि सराहने योग्य होय है;-- गाथा-लावण्णसीलकुसलो जम्ममहीरुहो जस्स सवणस्स । सो सीलो स महप्पा भमित्थ गुणवित्थरं भविए ॥३६॥
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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