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________________ ४०६ पंडित जयचंद्रची छावड़ा विरचित ____ आर्गे या कथन• संकोचै है;गाथा-एवं बहुप्पयारं जिणेहि पञ्चक्खणाणदरसीहिं। सीलेण य मोक्खपयं अक्खातीदं य लोयणाणेहिं ३३ संस्कृत-एवं बहुप्रकारं जिनैः प्रत्यक्षज्ञानदर्शिभिः । शीलेन च मोक्षपदं अक्षातीतं च लोकज्ञानः ॥३३॥ अर्थ–एवं कहिये पूर्वोक्त प्रकार तथा अन्य प्रकार बहुत प्रकार जिनदेवनैं कह्या है जो-शीलकरि मोक्षपद है, कैसा है मोक्षपद-अक्षातीत है, इंद्रियनिकरि रहित अतीन्द्रिय ज्ञान सुख जामैं पाइये है । बहुरि कहनेवाले जिनदेव कैसे हैं-प्रत्यक्ष ज्ञान दर्शन जिनकै पाइये है बहुरि लोकका जिनकै ज्ञान है। भावार्थ-सर्वज्ञ देवनैं ऐसे कया है जो शीलकरि अतीन्द्रिय ज्ञान सुख रूप मोक्षपद पाइये है सो भव्यजीव या शलकू अंगीकार करो, ऐसा उपदेशका आशय सूचै है, बहुत कहां तांई कहिये एताही बहुत प्रकार कह्या जानो ॥ ३३ ॥ आगैं कहै है जो इस शीलकरि निर्वाण होय ताकू बहुत प्रकार वर्णन कीजिये सो कैसैं ताका कहनां ऐसैं है;गाथा-सम्मत्तणाणदंसणतववीरियपंचयार मप्पाणं । जलणो वि पवणसहिदोडहंति पोरायणं कम्मं ॥३४॥ संस्कृत-सम्यक्त्वज्ञानदर्शनतपोवीयपंचाचाराः आत्मनाम् । ज्वलनोऽपि पवनसहितः दहंति पुरातनं कर्म ॥३४॥ अर्थ—सम्यक्त्व ज्ञान दर्शन तप वीर्य ये पंच आचार हैं सो आत्माका आश्रय पायकरि पुरातन कर्मनिकू दग्ध करें हैं, जैसैं अग्नि है सो पवन सहित होय तब पुराणे सूखे इंधनकू दग्ध करै तैसैं ।
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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