SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 399
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५६ पंडित जयचंद्रजी छाबड़ा विरचितहामैं तिष्ठै है ताळू जानो;-- गाथा-णविएहिं जं णविजइ झाइजइ झाइएहि अणवरयं । थुव्वंतेहिं थुणिजइ देहत्थं कि पि तं मुणह ॥१०३॥ संस्कृत-नतैः यत् नम्यते ध्यायते ध्यातैः अनवरतम् । स्तूयमानैः स्तूयते देहस्थं किमपि तत् जानीत १०३ अर्थ- हे भव्यजीव हौ ! तुम या देहविर्षे जो तिष्ठया ऐसा कछु क्यों है ताहि जानो, कैसा है—लोकमैं नमने योग्य इंद्रादिक हैं तिनिकरि तो नमने योग्य अर ध्यावने योग्य है, बहुरि जे स्तुति करने योग्य तीर्थकरादिक हैं तिनिकै स्तुति करने योग्य है, ऐसा कळू है सो या देहहीविर्षे तिष्ठै है ता• यथार्थ जानो ॥ ___ भावार्थ--शुद्ध परमात्मा है सो यद्यपि कर्मकरि आच्छादित है तोऊ भेदज्ञानीनिकै या देहहीविौं तिष्ठताही ध्याय करि तीर्थकरादि भी मोक्ष पावै है, यातें ऐसा कह्या है जो-लोकमैं नमनें योग्य तौ इंद्रादिक हैं अर ध्यावनें योग्य तीर्थकरादिक हैं तथा स्तुति करने योग्य तीर्थकरादिक हैं ते भी जाकू नमैं हैं ध्याबैं हैं जाकी स्तुति करैं हैं ऐसा वचन कळू वचनकै अगोचर भेदज्ञानीनिकै अनुभवगोचर परमात्मा वस्तु है ताका स्वरूप जानो ताकू नमो ध्यावो, बाहरि काहेर्नू हेरो; ऐसा उपदेश है ॥१०३ आगें आचार्य कहै है जो-अरहंतादिक पंच परमेष्ठी हैं ते भी आत्माविर्षे ही हैं तातैं आत्मा ही शरण है;-- गाथा--अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंच परमेठी । ते वि हु चिहहि आधे तम्हा आदा हु मे सरणं १०४ संस्कृत-अर्हन्तः सिद्धा आचार्या उपाध्यायाः साधवः पंच परमेष्ठिनः।
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy