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अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका।
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संस्कृत--वैराग्यपरः साधुः परद्रव्यपराङ्मुखश्च यः भवति ।
संसारसुखविरक्तः स्वकशुद्धसुखेषु अनुरक्तः॥१०॥ गुणगणविभूषितांगः हेयोपादेयनिश्चितः साधुः।
ध्यानाध्ययने सुरतः सःप्राप्नोति उत्तमं स्थानम् १०२ अर्थ-जो साधु ऐसा होय सो उत्तमस्थान जो लोकशिखरपरि सिद्ध क्षेत्र तथा मिथ्यावआदि चौदह गुणस्थाननितें परै शुद्धस्वभाव रूप स्थान सो पावै है। कैसा भया प्रथम तौ वैराग्यवि. तत्पर होय संसार देह भोगरौं 'पहलैं विरक्त होय मुनि भया तिसही भावनायुक्त होय; बहुरि परद्रव्यतै पराङ्मुख होय जैसैं वैराग्य भया तैसैंही परद्रव्यका त्यागकरि तिसतें पराङ्मुख रहै; बहुरि संसारसंबंधी इंद्रियनिकै द्वारै विषयनितें सुखसा होय है तातै विरक्त होय, बहुरि अपना आत्मीक शुद्ध कषायनिके क्षोभ रहित निराकुल शांतभावरूप ज्ञानानंद ताविषै अनुरक्त होय, लीन होय वारंवार तिसहीकी भावना रहै । बहुरि गुणके गणकरि विमूषित है आत्मप्रदेशरूप अंग जाका, मूलगुण उत्तरगुणनिकरि आत्माकू अलंकृत शोभायमान किये है, बहुरि हेयं उपादेय तत्त्वका निश्चय जाकै होय, निज आत्मद्रव्य तौ उपादेय है अर अन्य परद्रव्यंके निमित्तौं भये अपने विकारभाव ते सर्व हेय हैं, ऐसा जाकै निश्चय होय, बहुरि साधु होय आत्माके स्वभावके साधनेंविषै नीकै तत्पर होय बहुरि धर्म शुक्लध्यान अर अध्यात्मशास्त्रनिकू पढि ज्ञानकी भावनाविौं तत्पर होय सुरत होय भलै प्रकार लीन होय । ऐसा साधु उत्तमस्थान जो मोक्ष ताकू पावै है ॥ १०१-१०२॥
भावार्थ-मोक्षके साधनेंके ये उपाय हैं अन्य कछू नाही है ॥ १०१-१०२ ॥
आगें कहै है--जो सर्वतै उत्तम पदार्थ शुद्ध आत्माहै सो या देह