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________________ अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका। ३३७ इंद्रिय सुख है तिनिहीकू भले जांनि तिनिमैं रत है, आसक्त है, या” कहै है-जो अबार ध्यानका काल नाही ॥ ___ भावार्थ-जाकू इंद्रियनिके सुखही प्रिय लागें हैं अर जीवाजीव पदार्थका श्रद्धान ज्ञान” रहित है, सो ऐसैं कहै है जो अबार ध्यानका काल नांही। यातें जानिये है--ऐसैं कहनेवाला अभव्य है याकै मोक्ष न होयगी ॥ ७४ ॥ फेरि कहै है जो अबार ध्यानका काल न कहै है तानें पंच महाव्रत पांच समिति तीन गुप्तिका स्वरूप जान्यां नाही;-- गाथा-पंचसु महव्वदेसु य पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु । जो मूढो अण्णाणी ण हु कालोभणइ झाणस्स ॥७५॥ संस्कृत-पंचसु महाव्रतेषु च पंचसु समितिषु तिसृषु गुप्तिषु । यः मूढः अज्ञानी न स्फुटं कालः भणिति ध्यानस्य ७५ ___ अर्थ-जो पांच महाव्रत पांचसमिति तीन गुप्ति इनि विर्षे मूढ है अज्ञानी है इनिका स्वरूप नाही जानें है अर चारित्रमोहके तीव्र उदयतें इनिङ पालि न सके है, सो ऐसैं कहै हैं जो अबार ध्यानका काल नांही है ॥ ७५॥ __ आगें कहै है जो अबार इस पंचमकालमैं धर्मध्यान होय है, यह न मानें है सो अज्ञानी है, गाथा-भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स । तं अप्पसहावठिदे ण हुमण्णइ सो वि अण्णाणी ॥७६॥ संस्कृत-भरते दुःषमकाले धर्मध्यानं भवति साधोः । तदात्मस्वभावस्थिते न हि मन्यते सोऽपि अज्ञानी ७६ अर्थ-इस भरतक्षेत्रविर्षे दुःषमकाल जो पंचमकाल ताविर्षे साधु मुनिकै धर्मध्यान होय है सो यह धर्मध्यान आत्मस्वभावकै वि स्थित हैं अ. व. २२
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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