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________________ ३३६ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित तिस इष्ट अनिष्ट बुद्धिका अभावतें ज्ञानहीमें उपयोग लागें ताकू शुद्धोपयोग कहिये है सो ही चारित्र है, सो यह होय जहां निन्दा प्रशंसा दुःख सुख शत्रु मित्रविर्षे समान बुद्धि होय है, निन्दा प्रशंसाका द्विधाभाव मोहकर्मका उदयजन्य है, याका अभाव सो ही शुद्धोपयोगरूप चारित्र है ॥ ७२ ॥ आगें कहै है--जो केई मूर्ख ऐसें कहै हैं जो अबार पंचमकाल है सो आत्मध्यानका काल नाही, तिनिका निषेध करै है,गाथा-चरियावरिया वदसमिदिवजिया सुद्धभावपब्भहा । केई जंपति णरा ण हु कालो झाणजोयस्स ॥७३॥ संस्कृत-चर्यावृताः व्रतसमितिवर्जिताः शुदभावप्रभ्रष्टाः। केचित् जल्पंति नराः न स्फुटं कालः ध्यानयोगस्य ७३ अर्थ-जो केई नर कहिये मनुष्य ऐसे हैं जो चर्या कहिये आचारक्रिया सो है आवृत जिनकै चारित्र मोहका उदय प्रबल है ताकीर चर्या प्रकट न होय है याही व्रतसमितिकरि रहित हैं बहुरि मिथ्या अभिप्रायकरि शुद्धभाव” अत्यंत भ्रष्ट हैं, ते ऐसैं कहैं हैं जो-अबार पंचमकाल है सो यहु काल प्रगट ध्यान योगका नाही ॥ ७३ ॥ ते प्राणी कैसे हैं सो आगें कहै हैं;गाथा-सम्मत्तणाणरहिओ अभव्वजीवो हु मोक्खपरिमुक्को । संसारसुहे सुरदो ण हु कालो भणइ झाणस्स ॥७४॥ संस्कृत-सम्यक्त्वज्ञानरहितः अभव्यजीवः स्फुटं मोक्षपरिमुक्तः। संसारसुखे सुरतः न स्फुटं कालः भणति ध्यानस्य ७४ अर्थ—पूर्वोक्त ध्यानका अभाव कहनेवाला जीव कैसा है सम्यक्त्व अर ज्ञानकरि रहित है अभव्य है याही मोक्षकरि रहित है, अर संसारके
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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