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________________ अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । ३२१ भावार्थ-सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप दृढ होय परीषह आये न चिगै, ऐसैं आत्माकू ध्यावै सो परमपद पवै यह तात्पर्य है ॥ ४८॥ ___ आरौं दर्शन ज्ञान चारित्रौं निर्वाण होय है ऐसा कहते आये सो तहां दर्शन ज्ञान तौ जीवका स्वरूप है ते जाणे, अर चारित्र कहा है ? ऐसी आशंकाका उत्तर कहै है,गाथा-चरणं हवई सधम्मो धम्मो सो हवइ अप्पसमभावो। सो रागरोसरहिओ जीवस्स अणण्णपरिणामो ॥५०॥ संस्कृत-चरणं भवति स्वधर्मः धर्मः सः भवति आत्मसमभावः। स रागरोषरहितः जीवस्य अनन्यपरिणामः ॥५०॥ अर्थ—स्वधर्म कहिये आत्माका धर्म है सो चरण कहिये चारित्र है, बहुरि धर्म है सो आत्मासमभाव है सर्व जीवनिविर्षे समानभाव है जो अपना धर्म है सोही सर्व जीवनिमैं है अथवा सर्व जीवनिकू आपसमान मानना है, बहुरि जो आत्मस्वभावसूं रागद्वेषकरि रहित है काहूर्ते इष्ट अनिष्ट बुद्धि नाही है ऐसा चारित्र है सो जैसैं जीवके दर्शन ज्ञान है तैसेंही अनन्य परिणाम है जीवहीका भाव है ॥ __ भावार्थ-चारित्र है सो ज्ञान विर्षे रागद्वेषरहित निराकुलतारूप थिरता भाव है सो जीवहीका अभेदरूप परिणाम है, कछू अन्य वस्तु नाही है ॥ ५० ॥ आज जीवके परिणामकै स्वच्छताळू दृष्टान्तकरि दिखावै है, गाथा-जह फलिहमणि विसुद्धो परदव्वजुदो हवेइ अण्णं सो। तह रागादिविजुत्तो जीवो हवदि हु अणण्णविहो ५१ संस्कृत-यथा स्फटिकमणिः विशुद्धः परद्रव्ययुतः भवत्यन्यः सः तथा रागादिवियुक्तः जीवः भवति स्फुटमन्यान्यविधः अ०व० २१
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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