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________________ अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका । २९९ परद्रव्यर्ते विरक्त होय स्वद्रव्य मैं लीन होय तब विशुद्धता बहुत होय है, तिस विशुद्धता के निमित्ततैं शुभकर्मभी बंधे है अर अत्यंत विशुद्धता होय तब कर्मकी निर्जरा होय मोक्ष होय है तातैं सुगति दुर्गतिका होनां का तैसे युक्त है, ऐसें जाननां ॥ १६ ॥ आगैं शिष्य पूछै है जो - परद्रव्य कैसा है ? ताका उत्तर आचार्य कहै है; - गाथा - आदसहावादण्णं सच्चित्ताचित्तमिस्सियं हवइ । तं परदव्वं भणियं अवितत्थं सव्वदरसीहिं ॥ १७॥ संस्कृत - आत्मस्वभावादन्यत् सचित्ताचित्तमिश्रितं भवति । तत् परद्रव्यं भणितं अवितथं सर्वदर्शिभिः ॥१७॥ अर्थ — आत्मस्वभावतैं अन्य जो किछू सचित्त तौ स्त्री पुत्रादिक जीवसहित वस्तु बहुरि अचित्त धन धान्य हिरण्य सुवर्णादिक अचेतन वस्तु बहुरि मिश्र आभूषणादिसहित मनुष्य तथा कुटुंबसहित गृहादिक ये सर्व परद्रव्य हैं, ऐसैं जानें जीवादिक पदार्थका स्वरूप न जाण्या ताके जनावनें आर्थी सर्वदर्शी सर्वज्ञ भगवाननैं कह्या है अथवा ' अवितथं ' कहिये सत्यार्थ कह्या है ॥ भावार्थ — अपनां ज्ञानस्वरूप आत्मा सिवाय अन्य अचेतन मिश्र वस्तु हैं ते सर्वही परद्रव्य हैं ऐसें अज्ञानीके जनावनेंकूं सर्वज्ञदेवनैं कह्या है ॥ १७ ॥ आगैं कहें है जो —— आत्मस्वभाव स्वद्रव्य कला सो ऐसा है;गाथा - दुकम्मर हियं अणोवमं णाणविग्गहं णिचं | सुद्धं जिणेहिं कहियं अप्पा हवइ सव्वं ॥ १८ ॥ संस्कृत - दुष्टाष्टकर्मरहितं अनुपमं ज्ञानविग्रहं नित्यम् । शुद्धं जिनैः भणितं आत्मा भवति स्वद्रव्यम् ॥ १८॥
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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