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________________ २९८ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित अर्थ — पुन: कहिये बहुरि जो साधु परद्रव्यविषै रत है रागी है सो मिथ्यादृष्टी होय है, बहुरि सो मिथ्यात्वभावरूप परिणम्यां संता दुष्ट जे अष्ट कर्मतिनिकर बंधै है | भावार्थ —यह बंधके कारणका संपेक्ष है तहां साधु कहनें तैं ऐसा नाया है जो बाह्य परिग्रह छोडि निर्ग्रन्थ होय तो हू मिथ्यादृष्टी भया संता दुष्ट जे संसार के दुःख देनेवाले अष्ट कर्म तिनेिकरि बंधै है ॥ १५ ॥ आगैं कहै है जो - परद्रव्यहीतैं दुर्गति होय है अर स्वद्रव्यही सुगति.. होय है : गाथा - परदव्वादो दुग्गड़ सव्वादो हु सग्गई होई । इय पाऊण सदव्वे कुह रई विरय इयरम्मि || १६॥ संस्कृत - परद्रव्यात् दुर्गतिः स्वद्रव्यात् स्फुटं सुगतिः भवति । इति ज्ञात्वा स्वद्रव्ये कुरुत रतिं विरतिं इतरस्मिन् १६ अर्थ - परद्रव्यतै तौ दुर्गति होय है, बहुरि स्वद्रव्यतें सुगति होय है। यह प्रगट जाणौं, जातैं है भव्य जीव हौ ? तुम ऐसें जाणिकरि स्वद्रव्यविषै रति करो अर इतर जो परद्रव्य तातैं विरति करौ ॥ भावार्थ — लोक मैं भी यह रीति है अपने द्रव्यसूं रति करि अपनां ही भोगवै है सो सुख पावै है ताकूं कछू आपदा न आवै है, बहुरि परद्रव्यसूं प्रीतिकरि जैसैं तैसैं लेकरि भोगवै है ताक दुःख होय है आपदा आवै है । तातें आचार्य संक्षेपकरि उपदेश किया जो अपना आत्मस्वभावविषै तौं रति करौ यातैं सुगति हैं स्वगादिक भी याही तैं होय है। अर मोक्षभी याही तैं होय है, बहुरि परद्रव्यतैं प्रीति मति करौ यातें दुर्गति होय है संसार मैं भ्रमण होय है । इहां कोई कहें जो स्वद्रव्य मैं लीन भये मोक्ष होय है अर सुगति दुर्गति तौं परद्रव्यकी प्रीतितें होय है ? ताकूं कहिये जो - यह सत्य है, परन्तु इहां आशय तैं कला है जो
SR No.022304
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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